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सविपाक निर्जराः- जब कर्म बंधते हैं उसके पीछे कुछ समय उनके पकने में लगता है, उस पकने के काल को आबाधा काल कहते हैं। एक कोडाकोडी सागर की स्थिति के लिए सौ वर्ष IIT आबाधा काल है, तब एक सागर की स्थिति के लिए बहुत ही अल्प एक उच्छ्वास मात्र होगा - आबाधा काल के समाप्त होने के पीछे जितनी स्थिति जिस कर्म में शेष रहती है, उतनी स्थिति के समयों में उस कर्म की वर्गणाएं बंट जाती है। बंटवारा इस तरह होता है कि पहले अधि क संख्या होती है फिर क्रमशः कम होती जाती है। अंत में सबसे कर्म वर्गणाएं रह जाती हैं।
इस तरह ये कर्म वर्गणाएं समय-समय पर कम होती रहती हैं, इन को सविपाक निर्जरा कहते हैं। यदि बाहरी निमित्त अनुकूल होता है, तो फल प्रगट कर ये वर्गणाएं झड़ जाती हैं। यदि निमित्त अनुकूल नहीं होता तो बिना फल दिये ही झड़ जाती हैं। यह निर्जरा सभी संसारी प्राणियों के पाई जाती है।
2. अविपाक निर्जराः वीतराग शुद्ध भावों के द्वारा कर्मों को उनके विपाक समय से या नियत पतन समय से पहले ही दूर कर दिया जाता है, इसको अविपाक निर्जरा कहते हैं, इसका मुख्य कारण आत्मा का शुद्ध वीतराग भाव है, यह भाव शुद्ध आत्मिक ध्यान से प्राप्त होता है इस निर्जरा के लिए बारह प्रकार के तप का अभ्यास आवश्यक है, उसमें मुख्य तप ध्यान है। 12 तप निम्न प्रकार हैं
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अनशन : खाद्य, स्वाद्य, लेह, पेय चार प्रकार के आहार का त्याग कर दिन रात धर्मध्यान में समय व्यतीत करना।
अवमौदर्य भर पेट भोजन न करके यथासंभव कम भोजन करना ।
वृत्तिपरिसंख्यान : भिक्षा के लिए जाते समय इस प्रकार की कोई कड़ी प्रतिज्ञा करना कि अमुक प्रकार का आहार मिलेगा, अमुक मौहल्ले में मिलेगा या अमुक रीति से मिलेगा तो लूँगा, अन्यथा नहीं। यदि योग्य भिक्षा विधि न मिले तो वापस वन में जाकर समता भाव के साथ उपवास आदि करना । इस तप के करने में आशा तृष्णा का नाश होता है।
4. रसपरित्याग : दूध, दही, घी, मीठा, लवण (नमक) तैल इन छह रसों में से एक या अधिक का त्याग कर देना । इन्द्रिय दमन, आलस्य परिहार ( छोडना) तथा स्वाध्याय में आनन्द प्राप्ति के अर्थ यह तप जरूरी है।
5. विविक्त - शय्यासन: जीवों के रक्षार्थ प्रासुक क्षेत्र में ब्रह्मचर्य पालन तथा स्वाध्याय, ध्यानाध्ययनादिक क्रियाओं को निर्विघ्न करने के लिए पर्वत गुफा, वस्तिका, श्मशान भूमि, वन, खण्डहर आदि एकान्त स्थानों में सोने बैठने का नाम विविक्त शय्यासन है।
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