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जो संवर पद पाई अनदै, सो पूरव कृत कर्म निकंदै।
जो अफंद द्वै बहुरिन फंदै, सो निरजरा बनारसि बंदै॥ जो संवर की अवस्था प्राप्त करके आनन्द करता है, जो पूर्व में बांधे हुए कर्मों को नष्ट करता है, जो कर्म के फंदे से छूटकर फिर नहीं फँसता; वह निर्जरा है।
निर्जरा के भेद द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिचन्द कहते हैं
जहकालेण तवेण से भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण।
भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि पिज्जरा दुविहा॥ कर्मों की स्थिति पूर्ण होने से जिसका फल भोगा जा चुका है। ऐसा पुद्गलमय कर्म जिस परिणाम से छूटता है, वह परिणाम सविपाक भाव निर्जरा है और तप के द्वारा आत्मा के जिस परिणाम से कर्म छूटता है वही परिणाम अविपाक भाव निर्जरा है तथा स्थिति पूर्व होने से या तप से ज्ञानावरणदि द्रव्य कर्मों कर छूटना (सविपाक और अविपाक) द्रव्य निर्जरा है। इस प्रकार निर्जरा दो प्रकार जानना चाहिए।।
आचार्य कुन्दकुन्द देव वारस अणुवेक्खा में कहते हैं। बंधपदेसग्गलणं पिज्जरणं इदि जिणेहिं पण्णत्तं।
जेण हवे संवरणं तेण दुणिज्जरणमिदि जाणे॥66 कर्मबन्ध को प्राप्त पुद्गल वर्गणा रूप प्रदेशों का गलन निर्जरा है, ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। जिन परिणामों से संवर होता है, उन्हीं से निर्जरा होती है ऐसा जानों।
सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा।
चदुगदियाणं पढ़मा वयजुत्ताणं हवे बिदिया।67 निर्जरा दो प्रकार की है। एक तो कर्मों का अपनी स्थिति पूर्ण होने के पश्चात् झड़ना, दूसरे स्थिति पूर्ण होने से पहले ही तपश्चरण द्वारा कर्मों को नष्ट करना। इनमें से पहली निर्जरा चारों गतियों में सर्व ही जीवों के होती है, दूसरी निर्जरा व्रतियों के अर्थात् सम्यकदृष्टि श्रावक तथा मुनियों के होती है। पहली निर्जरा को सविपाक और दूसरी निर्जरा को अविपाक कहते हैं।
किसी कर्म के नष्ट होने का नाम निर्जरा है, जब किसी कर्म का फल हो चुकता है तो वह कर्म झड़ जाता है अर्थात् दूर हो जाता है। इस प्रकार फल देकर कर्म का झड़ जाना सविपाक निर्जरा है और पककरके समय से पहले ही किसी कर्म को नष्ट कर देना अविपाक निर्जरा है।
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