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सपेरा है उसे नहीं काटता, बल्कि उस बीन के साथ-साथ अपना स्वर समाहित करके वह नाचने लगता है, उसका नाच ऐसा साधारण नहीं होता, वह बीन के संगीत में खो जाता है, बस वह अपने आप को ही जानता है, अपने स्वभाव को जानता है, वह उसी समय सपेरे द्वारा पकड़ा जाता है। बाद में सपेरा उसके दाँत भी तोड़ देता है।
इसी प्रकार जब कर्म का उदय आवे तब वीतराग रूपी बीन को बजाना प्रारम्भ करना चाहिए। इस प्रकार बन्धुओं वीतरागता में अपार शक्ति निहित है यही शक्ति संवर मोक्ष का कारण है। दूसरे शब्दों में आस्रवका रोकना ही संवर तत्त्व है। इसके लिए गुण समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र आवश्यक है।
उपर्युक्त तत्त्व को एक और छोटे से दृष्टान्त द्वारा समझा जा सकता है।
एक स्त्री की अन्धेरे में सुई खो जाती है, वह स्त्री उस सुई को किसी अन्य के कहने से उजाले में ढूँढने लग जाती है। उजाले में तो वह सुई गिरी नहीं थी, इसलिए उजाले में वह कहाँ से मिले? खोई तो सुई अन्धेरे में है इसलिए अंधेरे में खोजने से ही मिलेगी। __ ठीक इसी प्रकार राग की एकता में आत्मा अनादि से खो रहा है। इसे यदि राग से भिन्न होकर देखें तो भी भेद-विज्ञान द्वारा यह हाथ में आ सकता है। __इस प्रकार जीव को बन्धन कैसे होता है, और मुक्ति कैसे हो, यह बात यहाँ बहुत संक्षेप में कह दी गई है। कर्म के उदय से जीव बँधे हैं ऐसा यहाँ नहीं कहा गया है। जीव की हीन दशा स्वयं द्वारा ही की गई। कर्म ने हीन दशा नहीं की है। शास्त्र में जो कर्म द्वारा होने की बात लिखी है वह भाव निमित्त का कथन है। इस जीव को संसार की अशुभ प्रकृति से निवृत्ति मिलती है नहीं। इससे कदाचित निवृत्ति मिले, तो शुभ भावों में आवे। परन्तु शुभ भाव से भी मैं भिन्न हूँ। यह बात सुनने को मिलना भी बहुत दुर्लभ है।
निर्जरा तत्व कर्मों के आशिक रूप से झड़ने को निर्जरा कहते हैं। निर्जरा के दो भेद हैं- द्रव्य निर्जरा और भाव निर्जरा। कर्म परमाणुओं का आत्मा से झड़कर अलग हो जाना द्रव्य निर्जरा है तथा आत्मा के जिन विशुद्ध भावों के कारण कर्म परमाणु आत्मा से पृथक होते हैं वह भाव निर्जरा है।
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