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आचार्य कार्तिकेय कहते हैं -
एदे संवरहेदू, वियारमाणो वि जोण आयरइ। सो भमइ चिरंकालुं, संसारे दुक्खसंतत्तो॥१०॥
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा) जो पुरुष इन संवरों के कारणों को विचारता हुआ भी आचरण नहीं करता है, वह दुःखों से तप्तायमान होकर बहुत समय तक संसार में भ्रमण करता है।
जो पुण विसयविरतो, अप्याणं सव्वदोविसंवरइ। मणहरविसएहिंतो तस्स फुडं संवरो होदि।
____ कार्तिकेयानुप्रेक्षा। 1011 जो मुनि इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होता हुआ, मन को प्रिय लगने वाले विषयों से आत्मा को सदाकाल संवर रूप करता है उसके प्रगटरूप से संवर होता है। सम्यग्दृष्टि की महिमा
भेदिमिथ्यात सुबेदि महारस, भेद-विज्ञान कला जिनपाई। जो अपनी महिमा अवधारत, त्याग करें उर सौज पराई। उद्धत रीति फुरी जिन्हके घट, होत निरंतर जोति सवाई। ते मतिमान सुवर्न समान, लगै तिन्हकौं न सुभासुभ काई॥
समयसार नाटक जिन्होंने मिथ्यात्व का विनाश करके और सम्यक्त्व का अमृत रस चखकर ज्ञानज्योति प्रगट की है, अपने निज गुणदर्शन-ज्ञान-चारित्र ग्रहण किये हैं, हृदय से पर द्रव्यों की ममता छोड़ दी है और देशव्रत, महाव्रतादि ऊँची क्रियायें ग्रहण करके ज्ञानज्योति को सवाया बढ़ाया है। वे विद्वान स्वर्ण के समान हैं; उन्हें शुभाशुभ कर्म मल नहीं लगता है।
भेद ज्ञान साबू भयौ, समरस निरमल नीर।
धोबी अंतर आतमा, धोबे निजगुन चीर॥९॥ दृष्टान्त द्वारा इसे समझा जा सकता है
जिसप्रकार सपेरे साँप को यों ही पकड़ लेते हैं जैसे कि फूलमाला, अन्यथा उनकी क्या हिम्मत कि वे उसे पकड़ लें। फिर भी पकड़ते तो हैं ही, इसमें कोई सन्देह नहीं। सपेरे जब सांप को पकड़ने से पहले वे उसे जगाते हैं, साँप जहाँ कहीं भी होता है वह उसकी ओर आ जाता है। सपेरा अपनी बीन बजाता रहता है तब वह साँप उसके सामने आकर बैठ जाता है। काटता नहीं है, किन्तु यदि साँप को कोई छेड़ता है तब वह उसे ही काटता है। जो बाँसुरी बजाने वाला
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