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________________ भोद ग्यान जिनके घट नाहीं। ते जड़ जीव बंधै घट मांहि॥८॥ (समयसार नाटक संवर अधिकार) संवर की विधि राग द्वेष मोह जिसके मूल हैं ऐसे शुभाशुभ योगों में प्रवर्तमान जो जीव दृढ़तर भेद विज्ञान के आलम्बन से आत्मा के द्वारा ही अत्यन्त रोककर, शुद्धदर्शन ज्ञानरूप आत्मद्रव्य में भलीभांति प्रतिष्ठित (स्थिर) करके, समस्त परद्रव्यों की इच्छा के त्याग से सर्व संग से रहित होकर, निरन्तर अति निष्कम्प वर्तता हुआ कर्म नोकर्म का किचित मात्र भी स्पर्श किए बिना अपने आत्मा को ही आत्मा के द्वारा ध्याता हुआ, स्वयं को सहज चेतयितापन होने से एकत्व को ही चेतता (अनुभव करता) है (ज्ञान चेतनारूप रहता है) वह जीव वास्तव में एकत्व चेतन द्वारा अर्थात् एकत्व के अनुभव द्वारा (परद्रव्य से) अत्यन्त भिन्न चैतन्य चमत्कार द्वारा आत्मा को ध्याता हुआ शुद्धदर्शन ज्ञानमय आत्मद्रव्य को प्राप्त होता हुआ, शुद्ध आत्मा की उपलब्धि (प्राप्ति) होने पर समस्त पर द्रव्यमयता से अतिक्रान्त होता हुआ अल्पकाल में ही सर्व कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त करता है। यह संवर का प्रकार (विधि) है। (गाथा 187, 188, 189 की आत्मख्याति टीका से) भेदज्ञान की क्रिया के दृष्टान्त जैसे रजसोधा रज सोधिकै दरब काढ़े, पावक कनक काढ़ि दाहत उपलकों। पंक के गरभमैं ज्यौ डारिये कतक फल, नीर करै उज्जल नितारि डारै मलकौं। दधिको मथैया मथि कालै जैसे माखन कौं, राजहंस जैसे दूध पीवै त्यागि जलकौं। तैसैं ग्यानवंत भेदग्यान की सकति साधि, वेदै निज संपति उछेदै पर-दलकौं ॥१०॥ जैसे रजतसोधा धूल शोधकर सोना चांदी ग्रहण कर लेता है, अग्नि धाड़को गलाकर सोना निकालती है, कर्दम में फिटकरी (निर्मली) डालने से वह पानी को साफ करके मैल हटा देती है, दही का मथने वाला दही मथकर मक्खन को निकाल देता है, हंस दूध भी पी लेता है और पानी छोड देता है। उसी प्रकार ज्ञानी लोग भेद विज्ञान के बल से आत्म सम्पदा ग्रहण करते हैं और राग द्वेषादि व पुद्गलादि पर पदार्थों को त्याग देते है। % E 105
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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