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निश्चय संवर निश्चय व्रत-(द्रव्यसंग्रह गाथा 34 की टीका) निश्चय से विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव.निज आत्मा तत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखामृत के आस्वादरूपी बल से समस्त शुभाशुभ रागादि विकल्प से निवृत्ति का होना, व्रत है।
निश्चय समिति-अभेद-(नियमसार गाथा 61) अनुपचार रत्नत्रय रूपी मार्ग में परमधर्मी ऐसे अपने आत्मा के प्रति सम्यक् 'इति' अर्थात् परिणति, समिति है अथवा निज परमतत्त्व में लीन सहज परम ज्ञानादिक परमधर्मों की संहति (मिलन-संगठन). समिति है।
निश्चय गुप्ति-निश्चय से सहज शुद्धात्म भावना लक्षण गूढस्थान में संसार कारण रागादि के भय से स्वात्मा में गोपन (रक्षण), गुप्ति है।
निश्चय धर्म-(बृहद् द्रव्यसंग्रह पृष्ठ 90) निश्चय से संसार में गिरते हुए आत्मा को जो धारण करे ऐसे विशुद्ध ज्ञान-दर्शन लक्षण निज शुद्धात्म की भावना, धर्म है।
निश्चय अनुप्रेक्षा-जैसा अपना शारीरिक स्वभाव है उसे वैसा जानकर भ्रम छोड़कर उन्हें भला मान कर राग न करना और बुरा समझकर द्वेष न करना ऐसी सच्ची उदासीनता के लिए अनित्यादि का यथार्थ चितंन करना, सच्ची अनुप्रेक्षा है। (मोक्षमार्ग प्रकाशक पेज 336)
निश्चय चारित्र-निश्चय से जो निष्कषाय भाव है वही सच्चा चारित्र है (कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 99वें में लिखा है-'हे भव्यो! जो आत्मस्वरूप वस्तु है उसका रागादि दोषों से रहित धर्म और शुक्ल ध्यान में लीन होना है उसको तू उत्तम चारित्र जान। ___186 वीं समयसार की गाथा की अत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं___ जो सदा ही अच्छिन्नधारावाही ज्ञान से शुद्ध आत्मा का अनुभव किया करता है वह 'ज्ञानमय भाव में से ज्ञानमय भाव ही होता है। इस न्याय के अनुसार आगामी कर्मों के आस्रव का निमित्त जो रागद्वेष मोह की संतति (परम्परा) उसका निरोध होने से शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है और जो सदा ही अज्ञान से अशुद्ध आत्मा का अनुभव किया करता है वह अज्ञानमय भावों में से अज्ञान मय भाव ही होता है इस न्याय के अनुसार आगामी कर्मों के आस्रव का निमित्त जो राग द्वेष, मोह की संतति उसका निरोध न होने से, अशद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है। अतः शुद्ध आत्मा की उपलब्धि से (अनुभव) ही संवर होता है। भेदज्ञान परम्परा मोक्ष का कारण
भेदज्ञान संवर जिन्ह पायो। सो चेतन शिवरूप कहायो।।
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