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________________ तीन गुप्तियां-पाप क्रियाओं से आत्मा को बचाना गुप्ति है ये तीन हैं मनोगुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति। मनोगुप्ति-मन को वश में करके धर्म ध्यान में लगाना तथा रागद्वेष से अप्रभावित रखना मनोगुप्ति वधनगुप्ति-मौन रहना या शास्त्रोक्त वचन कहना तथा असत्य वाणी का निरोध करना या मौन रहना वचन गुप्ति है। कायगुप्ति-एकासन से बैठना, ध्यान स्वाध्याय में काय को लगाना तथा शरीर को वश में रखकर हिंसादि क्रियाओं से दूर रहना कायगप्ति है। ___ इस प्रकार पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तियाँ मिलाकर कुल तेरह प्रकार का चारित्र साधु का होता है। दश धर्म-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिञ्चन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य। ____बारह भावना-अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, धर्म, बोधि-दुर्लभ भावना। बाईस परीषह जय-धर्म मार्ग में स्थिर रहने के लिए तथा कर्म बन्ध के विनाश के लिए समस्त प्रतिकूल विचारों और परिस्थितियों को समता पूर्वक सहन करते रहकर चलना परीषह जय है, कहा है- 'मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषोढव्या:परिषहाः' __परीषह शब्द "परि" और "षह" इन दो शब्दों के सम्मेलन से बना है। "परि" अर्थात् सब ओर से, सह अर्थात् सहन करना अर्थात् आन्तरिक संवेदनाओं से तथा वाह्य संयोगों वियोगों से उत्पन्न सभी प्रकार के कष्टों तथा दुःखों को समता पूर्वक सहन करना ही परीषहजय है। ये हैं___ (1) क्षुधा (2) तृषा (3) शीत (4) उष्ण (5) डंश मशक (6) नग्नता (7) अरति (8) स्त्री (9) चर्या-(चलने की) (10) निषद्या-(बैठने की) (11) शय्या (12) आक्रोश-(गाली आदि) (13) वध (14) याचना-(मांगने के अवसर पर भी न मांगना) (15) अलाभ-(भोजन । अंतराय पर संतोष) (16) रोग (17) तृण स्पर्श (18) मल (19) सत्कार-पुरस्कार आदर निरादर (20) प्रज्ञा-(ज्ञान का मद न करना) (21) अज्ञान-(अज्ञान पर खेद न करना) (22) अदर्शन (श्रद्धा न बिगाड़ना)। चारित्र पंच प्रकार-(1) सामायिक-(सम भाव रखना।) (2) छेदोपस्थापना-(सामायिक से गिरने पर फिर सामायिक में स्थिर होना।) (3) परिहार विशुद्धि-(ऐसा आचरण जिसमें हिंसा का विशेष त्याग हो)। (4) सूक्ष्म सांपराय-(दसवें गुस्थानवर्ती साधु का चारित्र, जहाँ मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय है)। यथाख्यात-पूर्ण वीतराग चारित्र। - 103
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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