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________________ हमारा भी अब आपको यह सन्देश हैं कि आप लोग भी इस संसार-शरीर-भोगों से उदासीन हो जाओ। अपनी वासनाओं को त्याग दो। अपनी अनन्त इच्छाओं को छोड़ दो। अपने पापों को, अपने अपराधों का प्रायश्चित कर लो। अपने अपराधों के प्रति निष्क्रिय हो जाओ, जड़ हो जाओ और पुनः उन अपराधों को न करो। एकदम मुर्दे के समान बन जाओ। इस प्रकार करने से अपराध आप पर अपना प्रभाव नहीं दिखा सकेंगे। अत्याचार-अनाचार की ओर आपकी दृष्टि कभी भी नहीं हो सकेगी। जब एक तोता भी अंगूर-मिष्ठान्न के बन्धन में रहना पसन्द नहीं करता फिर आप लोग तो मानव हो। राजा अपने पालतू तोते की बात को समझ जाता है। राजा तोते का पिंजरा समुद्र में फेंक देता है। इस दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बन्ध तत्त्व जीव की स्वतंत्रता को नष्ट करता है, दुःख देता है, बंध कभी भी सुख नहीं दे सकता चाहे कितने भी लौकिक सुखों का संयोग हो। बन्ध तत्त्व को समझकर ऐसा प्रयास करना चाहिए जिससे हम आगे कर्मों का बन्ध न कर सकें। % 3D संवर तत्त्व संवर का स्वरूप आचार्य नेमिचन्द्र आचार्य द्रव्यसंग्रह में कहते हैं चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू। सो भावसंवरो खलु दव्यासवरोहणे अण्णो॥३४॥ जो आत्मा का परिणाम कर्म के आश्रव को रोकने में कारण है वही भाव संवर है, और द्रव्यास्रव का न होना, द्रव्य संवर है। वदसमिदिगुत्तिओ धम्माणुपेहा परीसहजओ या ' चारित्तं बहुभेयं णायव्वा भावसंवरविसेसा॥३५॥ व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुपेक्षा, परीषहजय और अनेक भेद वाला चारित्र ये भाव संवर के भेद जानना चाहिए। ____ नोट-यहाँ पर आचार्य निश्चयव्रत, निश्चयसमिति, तथा निश्चय गुप्ति को भाव संवर कहतें हैं। __प्रमाद के निमित्त से आस्रव को प्राप्त होने वाले असंयम के अभाव में संवर होता है. जो कर्म प्रमाद निमित्त से आस्रव को प्राप्त होता है, उसका प्रमत्त संयत गुणस्थान के आगे प्रमाद न रहने के कारण संवर जानना चाहिए। - 101
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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