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________________ आगे कहते हैं कि पुद्गलस्कन्ध कैसे कर्म रूप होते हैं फिर कैसे छूटते हैं खंधा जे पुबुत्ता हवंति कम्माणि जीव भावेण। लद्धा पुण ठिदिकालं गलति ते णियफलं दत्ता॥ . -णयचक्को , माइल्लपवल, 127 वे पुदगल स्कन्ध जीव के भावों को निमित्त पाकर स्वयं ही कर्म रूप हो जाते हैं और अपने स्थिति, काल तक ठहरने के बाद अपना फल देकर गल जाते हैं। विशेष-जीव के राग, द्वेष, मोह रूप भावों का निमित्त पाकर कर्मवर्गणा रूप से आया रूप पुद्गल द्रव्य स्वयं ही ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूप परिणमित हो जाता है और उसी समय उसमें स्थितिबन्ध भी हो जाता है। अपने स्थितिबन्ध काल तक वह कर्म आत्मा के साथ बंध जाता है। स्थिति पूर्ण होने पर वह अपना फल देकर झड़ जाता है। यह परम्परा संसार छूटने तक बराबर चलती रहती है। भोत्ता ह होड जडया तडया सो फणडरायमादीहिं। एवं बन्धो जीवे णाणावरणादिकम्मे हिं।। -णयचक्को, माइल्लघवल, 128 जब जीव पूर्वबद्ध कर्मों का फल भोगता है तो राग-द्वेष रूप परिणमन करता है, इस तरह से जीव में ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध होता रहता है। विशेष-भावार्थ यह है कि जब जीव के पूर्वबद्ध द्रव्यकर्मों का उदय होता है, तो वह जीव स्वयं ही अपने अज्ञान भाव से मिथ्यात्व रागादि रूप परिणमन करता हुआ नवीन कर्म बन्ध का कारण होता है। इसका आशय यह है कि द्रव्यकर्म का उदय होने मात्र से जीव के कर्म बन्ध नहीं होता; किन्तु जीव के रागादि रूप परिणमन करने से नवीन कर्म का बन्ध होता है। यदि कर्म के उदय मात्र से बन्ध होता तो संसार का कभी बन्ध नहीं होता; क्योंकि संसारी जीवों के सर्वदा ही कर्म का उदय रहता है। .आत्मानुभव से कर्मबन्ध नहीं | इह विधि वस्तु व्यवस्था जानै। रागादिक निज रूप न माने। तातै ग्यानदंत जग माहि। कर्म बंध को कर्ता नांहि॥५६॥ संसार में सम्यग्दृष्टि जीव ऊपर कहे अनुसार आत्मा का स्वरूप जानता है और राग, द्वेषादि को अपना स्वरूप नहीं मानता है इसलिए वह कर्म बन्ध का कर्ता नहीं है। % E - 99
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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