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________________ मोहके अनल दगे माया की मनीसौं पगे, डाकी अनसौं लगें ओसकेसे फूहे हैं। धरमकी बूझ नांहि उरझे भरममांहि । नाच नाचि मर जांहि मरी केसे चूहे हैं ॥ -समयसार, नाटक, 243 संसारी जीव मनुष्य आदि का शरीर धारण करके भटक रहे हैं, जो मरघट के दीपक, रेत केटीले के समान क्षणभंगुर हैं। वस्त्र आभूषण आदि से अच्छे दिखाई देते हैं। परन्तु सांझ के आकाश के समान क्षणभर में मलिन हो जाते हैं और घास पर पड़ी हुई ओस के समान क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। उन्हें निज स्वरूप की पहिचान नहीं है, भ्रम में भूल रहे हैं और प्लेग के चूहों की तरह नाच नाचकर शीघ्र मर जाते हैं। आत्मानुभव करने का उपदेश अलख अमूरति अरूपी अविनासी अज, निराधार निगम निरंजन निरंध है । नाना रूप भेस धरै भेसकौ न लेस धरै, चेतन प्रदेश धरै चेतन को बंध है । मोह धरै मोहीसौ विराजै तोमैं तो ही सौ, न तोही सौ न मोही सौ न रागी निरबन्ध है। ऐसौ चिदानन्द याही घट मैं निकट तेरे, ताहि तू विचारू मन और सब धंध है । -समयसार, नाटक, 54 यह आत्मा अलख, अमूर्तिक, अरूपी, नित्य, अजन्मा, निराधार, ज्ञानी, निर्विकार और अखण्ड है। अनेक शरीर धारण करता है पर उन शरीरों के किसी अंशरूप नहीं हो जाता, चेतन प्रदेशों को धारण किये हुए चैतन्य का पिण्ड ही है। जब आत्मा शरीरादि से मोह करता है तब मोही हो जाता है और जब अन्य वस्तुओं में राग करता है तब उन रूप हो जाता है। वास्तव में न शरीर रूप है और न अन्य वस्तु रूप है, वह बिल्कुल वीतरागी और कर्म बन्ध रहित है। हे मन्! ऐसा चिदानन्द इसी घट में तेरे निकट है उसका तू विचार कर, उसके सिवाय और सब जंजाल है। 98
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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