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________________ राग, द्वेष और कषाय कर्मों के होने पर (अर्थात् उनके उदय होने पर) जो भाव होते हैं, उन रूप परिणमता हुआ आत्मा रागादि को बाँधता है। संसारी जीवों की दशा कोल्हू के बैल के समान है पाटी बांधी लोचनिसौं सकुचै दबोचनिसौं, कोचनिके सोचसौं न बेदै खेदतन को। धाराबो ही धंधा अरू कंधामांहिलाग्यौ जोत, बारबार आर सहै कायर है मनका।। भूख सहै प्यास सहै दुर्जन को त्रास सहै, थिरता न गहै न उसास लहै छनको। पराधीन घूमै जैसो कोल्हूको कमेरौ वैल, तै सौई स्वभाव या जगतवासी जनकौ।। -समयसार, नाटक, 42 संसारी जीवों की दशा कोल्हू के बैल के समान हो रही है, वह इस प्रकार है-नेत्रों पर ढंकना बँधा हुआ है, स्थान की कमी के कारण दबोच से सिकुड़ा-सा रहता है, चाबुक की मार के डर से शरीर के कष्ट की जरा भी परवाह नहीं करता, दौड़ना ही उसका काम है, उसके कंधे में जोत लगा हुआ है (जिससे निकल नहीं सकता), हर समय अरई की मार सहता हुआ मन में हत-साहस होता है, भूखा-प्यासा और निर्दय पुरुषों द्वारा प्राप्त कष्ट भोगता है, क्षणभर भी विश्राम लेने की थिरता नहीं पाता और पराधीन हुआ चक्कर लगाता है।। पाप बन्ध के कारण इस प्रकार अज्ञान से जो हिंसा में अध्यवसाय किया जाता है उसी प्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह में भी जो (अध्यवसाय) किया जाता है वह सब पाप बन्ध का एक मात्र कारण है और जो अहिंसा में अध्यवसाय किया जाता है उसी प्रकार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में भी (अध्यवसाय) किया जावे, वह सब पुण्य बन्ध का एकमात्र कारण है। संसारी जीवों की स्थिति जगत मैं डोलैं जगवासी नररूप धरै, तके से दीप किधौ रेतके से पूहे हैं। दीसे पट भूषन आडंबरसौं नीके फिरि, फीके छिनमांझ सांझ-अंबर न्यौं सूहे हैं। - 97D
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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