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________________ बन्ध के भेद पयडिट्ठिदिअणुभागपदेसभेदादु चदुविधोबंधो। जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति । - द्रव्यसंग्रह, 33 बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है। उनमें प्रकृति और प्रदेश बन्ध योग से तथा स्थिति और अनुभाग कषाय से होता है। प्रकृति-कर्म के स्वभाव को प्रकृति कहते हैं। जैसे- ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति पदार्थों को न जानने में निमित्त होती और दर्शनावरण कर्म की प्रकृति पदार्थों को न देखने में निमित्त होती है। जैसे- नीम कड़वा गुण मीठा है वैसे ही समस्त कर्मों की प्रकृतियाँ समझना चाहिए । प्रदेश- बँधे हुए कर्म परमाणुओं का आत्मा के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्र में अवगाहन पूर्वक रहना अथवा कर्म रूप से परिणत पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेश बन्ध कहते हैं। स्थिति - स्वभाव से निश्चित समय तक छूटना। जिस प्रकार बकरी आदि के दूध में मिठास है, मिठास का न छूटना, स्थिति है। उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मों का पदार्थों को न जानने देना आदि स्वभाव निश्चित समय तक न छूटना, स्थिति बन्ध है। अनुभाग - कर्मों के रस - विशेष (फल दान की शक्ति) को अनुभाग बन्ध कहते हैं बकरी गाय और भैंस आदि के दूध में चिकनाहट कम, साधारण तथा विशेष ज्ञात होती है, उसी प्रकार कर्म पुद्गलों की शक्ति विशेष को अनुभाग अथवा अनुभव बन्ध कहते हैं। विशेष-बन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग कारण है और बन्ध कार्य है। इनमें पहले गुणस्थान में, पाँचों से ही बन्ध होता है। दूसरे, तीसरे तथा चौथे इन तीनोंगुण स्थानों में मिथ्यात्व को छोड़कर शेष चार कारणों से पांचवें में अविरति और विरति दोनों से मिले हुए प्रमाद, कषाय और योगों से छट्ठे में प्रमाद कषाय और योगों से सातवें, आठवें, नवमें और दशवें में कषाय और योगों से ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें इन तीनों में केवल योग के द्वारा बन्ध होता है। चौदहवें में न कर्म का आश्रव होता है न बन्ध ही होता है। यहाँ पर आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं राग व दोस िय कसायकम्मेसु चेव जे भावा । तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा ॥ 96 - समयसार, 282
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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