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________________ सततारम्भयोगैश्च व्यापारैर्जन्तु घातकै: । शरीरं पापकर्माणि संयोजयति देहिनाम् ॥ ज्ञा. सर्ग 2.8 निरन्तर आरम्भ करने वाला और जीवघात के कार्य से तथा व्यापारों से जीवों का शरीर (काययोग) पाप कर्मों को संग्रह करता है अर्थात् काययोग से अशुभास्रव करता है। 5. कषाय- आत्मा का विभाव परिणाम जो सम्यक्त्व देशचारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यात चारित्र रूप परिणामों का घात करे और जीव को चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण कराए कषाय कहलाता है। कषाय के चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इन चारों कषायों में से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं क. अनंतानुबन्धी (क्रोध, मान, माया, लोभ) - यह कषाय दीर्घकाल तक बनी रहती हैं, कठिनता से मिटती हैं। इसके उदय से सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरण चारित्र प्रकट नहीं होता । ख. अप्रत्याख्यान (क्रोध, मान, माया, लोभ) - कषायों की यह चौकड़ी निश्चय पूर्वक एक देशचारित्र को रोकती है और इसीलिए इनको अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं, इनकी वासना छः माह तक रहती है। ग. प्रत्याख्यानावरण-(क्रोध, मान, माया, लोभ) - यह चौकड़ी सकल संयम अर्थात् मुनि चारित्र को रोकती है। कषायों की इस चौकड़ी के नष्ट होने से ही मुनिपद प्राप्त होता है, इस चौकड़ी का वासना काल एक पक्ष ( 15 दिन) का है। घ. संज्वलन - (क्रोध, मान, माया, लोभ) - यह चौकड़ी संयम के साथ दैदीप्यमान रहती है; यह संज्वलन कषाय की चौकड़ी और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद इनके नष्ट होने से यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होती हैं। उपर्युक्त आस्रव के भेदों को समझने के लिए निम्न चार दृष्टान्त समझना चाहिए। 1. एक मुसाफिर कहीं जा रहा था। रास्ते में उसके साथ एक दुर्घटना हो जाती है। थोड़ी-बहुत चोट अवश्य लगती है किन्तु वह बच जाता है। घर वापिस आता है, सब हाल अपनी पत्नी को बताता है। कहता है-आज मैं बच गया। गाड़ी से एक्सीडेन्ट हो गया था। चोट लगी है; मरते-मरते बचा हूँ। पत्नी यह सुन रोने लगती है, विलाप करने लगती है मानो वह वास्तव में मर ही गया हो, सोचती है अगर यह मर जाता तो मेरी क्या दशा होती, यह सोच और जोर-जोर से रोने लगती है। रोने की आवाज सुन आसपास की औरतें भी इकट्ठी होकर आ जाती हैं और पूछती हैं कि क्या हो गया है? पत्नी कहती है कि पूछो नहीं, आज तो बहुत बुरा हो गया । यह सुन सब औरतें रोने लगती हैं। इस दृष्टान्त का तात्पर्य यह है 93
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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