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यम (अणुव्रत, महाव्रत ) प्रशम ( कषायों की मंदता ), निर्वेद (संसार से विरागता अथवा ध मनुयोग), तथा तत्त्वों का चिन्तन अत्यधिक अवलंबन हो, एवं मैत्री, प्रमोद, कारूण्य और माध्यस्थ इन चार भावों की जिस मन में भावना हो, वही मन शुभास्रव को उत्पन्न करता है।
अशुभ मनयोग
कायदहनोद्दीप्तं विषयैर्व्याकुलीकृतम् । संचिनोति मनः कर्म जन्मसम्बन्धसूचकम् ॥४॥
(ज्ञा. सर्ग 2 ) कषायरूप अग्नि से प्रज्वलित और इन्द्रियों के विषयों से व्याकुल मन संसार के सम्बन्ध के सूचक अशुभ कर्मों का संचय करता है।
वचनयोग
विश्वव्यापारनिर्मुक्तं श्रुतज्ञानावलम्बितम् । शुभासवाय विज्ञेयं वचः सत्यं प्रतिष्ठितम् ॥
-ज्ञा. सर्ग 2.5
समस्त विश्व के व्यापारों से रहित तथा श्रुतज्ञान के अवलम्बन मुक्त और सत्यरूप प्रमाणिक वचन शुभास्रव के लिए होते हैं। आगे भी कहते हैं
अपवादास्पदीभूतमसन्मार्गोपदेशकम् ।
पापासवाय विज्ञेयमसत्यं परुषं वचः ॥
- ज्ञा. सर्ग 2.6
अपवाद ( निन्दा) का स्थान, असन्मार्ग का उपदेशक, असत्य, कठोर, कानों से सुनते ही जो दूसरे के कषाय उत्पन्न कर दें, और जिससे पर का बुरा हो जाय, ऐसे वचन अशुभास्रव के कारण होते हैं ।।
काययोग
सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेण वानिशम् । संचिनोति शुभं कर्म काययोगेन संयमी ॥
-ज्ञा. सर्ग 2.7
भली प्रकार गुप्त रूप किये हुए, अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए काय से तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से संयमी मुनि शुभ कर्मों को संचय (आस्रवरूप) करते हैं।
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