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________________ - घ. राज कथा-राजाओं के भोग विलास एवं युद्ध, मार-काट हिंसा आदि की चर्चा करते रहना। कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय हैं। क. क्रोध-क्रोध करने को क्रोधकषाय कहते हैं। ख. मान-मान (घमण्ड, अहंकार) करने को मान कहते हैं। ग. माया-मायाचारी करने को अर्थात् कुछ का कुछ दिखाने को माया कहते हैं। घ. लोभ-लालच करने को लोभ कहते हैं। पांचों इन्द्रियों के विषय में लंपटता रखना। (क) स्पर्शन-स्पर्शन इन्द्रिय के बस में होकर न करने योग्य कार्य करना। (ख) रसना-रसना इन्द्रिय की लम्पटता से भक्ष्याभक्ष्य का ध्यान न करना। (ग) घ्राण-बहुत जीवों की हिंसा से बने इत्र आदि को सूंघना। (घ) चक्षु-सिनेमा आदि का देखना। (ङ) कर्ण-फिल्मी गाने अथवा किसी की गुप्त बातें सुनना। निद्रा-अधिक सोना क्योंकि इससे दर्शनावरण का आस्रव होता है। स्नेह-राग करने को स्नेह कहते हैं। 4. योग-जीव के प्रदेशों में जो परिस्पन्दन, प्रकम्पन या हलन चलन होता है उसे योग कहते हैं। मन, वचन, काय से होने वाली आत्मा की क्रिया ही कर्म परमाणुओं के साथ आत्मा का योग अर्थात् सम्बन्ध कराती है। इसी अर्थ में इसे योग कहा जाता है। आचार्य कहते हैं मनस्तनु वचः कर्म योग मित्यभिधीयते। स एवासव इत्युक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदैः॥१॥ (ज्ञा. सर्ग 2) मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं और इस योग को ही तत्त्वविशारदों ने (ऋषियों ने) आस्रव कहा है। तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है"कायवाङ्मनःकर्मयोगः स आस्रवः" शुभ-मनयोग यमप्रशमनिवेदतत्त्वचिन्तावलम्बितम् । मैत्र्यादिभावनारूढं मनः सूते शुभास्रवम्॥३॥ (ज्ञा. सर्ग 2) 91
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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