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________________ जिस परिणाम से आत्मा के कर्म का आस्रव होता है, उसको जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ भावास्रव जानना चाहिए और भावास्रव से भिन्न ज्ञानावरणादि रूप कर्मों का जो आस्रव है वह द्रव्य आस्रव है। भावासव का स्वरूप . मिच्छताविरदिपमादजोगकोधादओथ विण्णेया। पण पण पणदस तियचदु, कमसो भेदा दु पुवस्स। - द्रव्यसंग्रह, 30 मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और कषाय से भावासव के पांच भेद हैं। मिथ्यात्व के पाँच, अविरति के पांच, प्रमाद के पन्द्रह, योग के तीन, कषाय के चार भेद जानना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द वारस अणुवेक्खा में कहते हैं एयंतविणयविवरियसंसयण्णाणमिदिहवे पंच। अविरमणं हिंसादि पंचविहो सो हवइ णियमेण।48 मिथ्यात्व के पांच भेद हैं-एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान। अविरति के, नियम से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह पांच भेद हैं। 1. मिथ्यात्व-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, और मोक्ष इन सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान न होकर मिथ्या श्रद्धा होना मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व पांच प्रकार का है। अ. एकान्त मिथ्यात्व-वस्तु में अनेक धर्म होते हैं, परन्तु संसार के अल्पज्ञ जीव वस्तु के एक ही धर्म को लेकर हठधर्मिता से उसी के अनुसार उसका श्रद्धान कर लेते हैं। जैसे-द्रव्य मूल स्वभाव की अपेक्षा नित्य है, पर्याय पलटने की अपेक्षा अनित्य है। नित्य अनित्यरूप वस्तु है, ऐसा न मानकर यह हठ करना कि वस्तु नित्य ही है या अनित्य ही है। ये एकान्त मिथ्यात्व हैं। श्री वीतराग प्रभु न हमारा कुछ बिगाड़ते हैं और न कुछ संवारते हैं क्योंकि वे सर्वथा राग-द्वेष से रहित हैं, उनका ध्यान करने से, उनकी वीतरागता का चिंतन करने से हमारे अपने परिणामों में वीतरागता आती है। जिससे पाप कर्मों का क्षय होता है, इस हेतु उपचार नय से वह हमारे दुःख को दूर करने वाले हैं, परन्तु उनको साक्षात् दुःखों का दूर करने वाला कर्ता परमेश्वर मानना एकांत मिथ्यात्व है। ब. विनय मिथ्यात्व-सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की अपेक्षा न करके अर्थात् इस बात को बिना बिचारे कि जिसकी मैं विनय करता हूँ उसमें रत्नत्रय रूप गुण हैं या नहीं, - 891
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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