SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दोनों की दहाड़ से जंगल गूँज जाता है। सारे गधे और वह कुम्हार यह देख डर के मारे भाग जाते हैं। इसी प्रकार यह मनुष्य है। जब तक यह अपनी शक्ति को भूला रहता है तब तक ही वह अपने अन्य रूप को मानता रहता है। इसीलिए आचार्य कहते हैं चेतन रूप हीरा तो निराला है, लेकिन तू अज्ञानता में, जैसा तुझे शरीर मिलता है, उसको वैसा ही अपना रूप समझ लेता है। इस प्रकार यदि तू अजीव तत्त्व की पर्याय को अपना रूप न जाने तो क्या इतना दुःखी हो सकता है ? कदापि नहीं। मैं कुरूप हूँ, मैं सुन्दर हूँ, यह घर-परिवार, धन-सम्पत्ति, पुत्र-पुत्री मेरे हैं, स्त्री - पति आदि मेरे हैं। ऐसी भावना ही नहीं बननी चाहिए। तू अपना जिसको सम्बन्धी कह रहा है वह सब तेरा परिवार नहीं, वह तो अजीव तत्त्व का परिवार है। तेरा परिवार तो ज्ञान शक्ति आनन्द- सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र है। तू तो धर्म ज्योति से भरा एक पिंड है। इसलिए हे भव्य जीवों, यदि तुम अपने संसार भ्रमण को नष्ट करना चाहते हो, संसार दुःखों से छूटना चाहते हो और अपनी आत्मा सुखी करना चाहते हो तो इस पर्याय बुद्धि को समाप्त करो और अपने को पहिचानो । चाहे तुम्हें नारकी पर्याय मिले, या देव गति, मनुष्य पर्याय मिले या तिर्यंच गति; शरीर सुन्दर मिले या कुरूप, इन सबको अपना स्वरूप न जानो। यह सब तो अजीव तत्त्व की पर्यायें हैं, नश्वर हैं, इनके लिए क्या दुःखी, सुखी होना । अतः जीव को जीव समझना तथा अजीव को अजीव समझना, यही भेद विज्ञान है और यही सच्चा मार्ग है। आस्रव का स्वरूप आस्रव तत्त्व आतमसिद्ध स्वरूपमय, निश्चयदृष्टि निहार । सब विभावपरिणाममय, आस्रवभावविडार ॥ अभिप्राय यह है कि यद्यपि यह आत्मा शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से तो आस्रव से रहित सिद्ध रूप है, तथापि अनादि कर्म के संबंध से मिथ्यात्वादि परिणामस्वरूप परिणमता है, अतएव नवीन कर्मों का आस्रव करता है। जब उन मिथ्यात्वादि परिणामों से निवृत्ति पाकर अपने स्वरूप का ध्यान करे तब कर्मास्रवों से रहित मुक्त होकर सुखमय हो जावे । आस्रव के भेद आचार्य नेमिचन्द्र आस्रव के मुख्य दो भेद बताते हुए कहते हैंआसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेओ । भावासवो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि ॥ २९ ॥ 88 (वव्यसंग्रह)
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy