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पुद्गल द्रव्य वर्ण रस आदि सहित मूर्तिक है, शेष, धर्म, अधर्म, आदि चार द्रव्य अमूर्तिक हैं। इस प्रकार अजीव द्रव्य मूर्तिक और अमूर्तिक दो भेद रूप हैं; जीव भी अमूर्तिक है इसलिए अमूर्तिक वस्तु का ध्यान करना व्यर्थ है। आत्मा स्वयं सिद्ध, स्थिर, चैतन्यस्वभावी, ज्ञानामृत स्वरूप है, इस संसार में जिन्हें परिपूर्ण अमृतरस का स्वाद लेने की अभिलाषा है, वे ऐसे ही आत्मा का अनुभव करते हैं।
मूढ़ स्वभाव वर्णन
चेतन जीवन अजीव अचेतन, लच्छन-भेद उभै पदन्यारे । सम्यकदृष्टि-उदोत विचच्छन, भिन्न लखै लखिकें निखारे । जे जगमांहि अनादि अखंडित, मोह महामद के मतवारे । जड़ चेतन एक कहैं, तिन्हकी फिरि टेक करें नहि टारे ॥ १२ ॥
समयसार नाटक
जीव चैतन्य है, अजीव जड़ है; इस प्रकार लक्षण भेद से दोनों प्रकार के पदार्थ पृथक-पृथक हैं। विद्वान लोग सम्यग्दर्शन के प्रकाश से उन्हें जुदे - जुदे देखते हैं और निश्चय करते हैं, परन्तु संसार में जो मनुष्य अनादि काल से दुर्निवार मोह की तीक्ष्ण मदिरा से उन्मत हो रहे वे जीव और जड़ को एक ही कहते हैं। इस प्रकार जीव की जब तक तत्त्व दृष्टि नहीं होगी तब तक, जीव दुःखी रहेगा। पर्याय दृष्टि खत्म होते ही जीव सुखी हो जाता है। इस बात को समझने के लिए निम्न दृष्टान्त सहायक होगा
एक व्यक्ति किसी जंगल को जा रहा था। रास्ते में देखता है कि एक हाथी किसी बच्चे को अपनी सूँड में लपेटकर मार रहा है। यह दृश्य देखकर वह चिल्लाने लगता है कि - " अरे ! मेरा बच्चा मारा जा रहा है, इसे बचाओ-बचाओ।" यह कहता हुआ वह बेहोश हो जाता है। वह बच्चा वास्तव में उसका नहीं था। अन्य मनुष्यों ने जब यह देखा तो उसका अपना बच्चा लाकर दिखाया गया। कुछ समय बाद जब वह होश में आता तब वह अपने बच्चे को देखता है तो बहुत प्रसन्न होता है। वस्तुतः उस व्यक्ति के सुख का कारण उस बच्चे को देखने का नहीं था, किन्तु उसे सुख इस बात का हुआ कि वह हाथी द्वारा लपेटा गया बच्चा उसका नहीं था। यह जानने के बाद वह प्रसन्न होता है। इस प्रकार जब तक जीव पर पदार्थों में अपनी ममत्व बुद्धि रखता है, तब तक ही मनुष्य को बेहोशी का नशा जाल छाया रहता है। जैसे ही परपदार्थों में अपनत्व बुद्धि दूर होती है, उसको आनन्द की लहर आने लगती है। इसप्रकार इस ममत्व
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