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________________ शरीर सम्बन्धी रूप, रस, गंध, स्पर्श, आदि व राग-द्वेष आदि विभाव सब अचेतन हैं, ये हमारे स्वरूप नहीं हैं; आत्मानुभव में एक ब्रह्म के सिवाय अन्य कुछ नहीं भासता। वेह और जीव की भिन्नता पर दूसरा दृष्टान्त ज्यौं घट कहिये घीवको, घट को रूप न घीव। त्यौं वरनादिक नामसौं, जड़ता लहै न जीव। ९॥ समयसार नाटक जिस प्रकार घी के संयोग से मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहते हैं परन्तु घड़ा घी रूप नहीं हो जाता, उसी प्रकार शरीर के सम्बन्ध से जीव छोटा, बड़ा, काला, गोरा आदि अनेक नाम पाता है, परन्तु वह शरीर के समान अचेतन नहीं हो जाता। आत्मा का प्रत्यक्ष स्वरूप निराबाध चेतन अलख, जानै सहज स्वकीव। अचल अनादि अनंत नित, प्रगट जगत मैं जीव॥१०॥ समयसार नाटक जीव पदार्थ निराबाध है (साता असाता की बाधा से रहित), चैतन्य, अरूपी, स्वाभाविक, ज्ञाता, अचल, (अपने ज्ञान स्वभाव से डिगता नहीं) अनन्त है (अनन्त गुण सहित है) और नित्य है यह संसार में प्रत्यक्ष प्रमाण है। अनुभव विधान रूप-रसवंत मूर्तिक एक पुद्गल, रूप बिनु औरू यौं अजीव दर्व दुधा है। चारि हैं अमूरतीक जीव भी अमूरतीक, याहीत अमूरतीक-वस्तु-ध्यान मुधा है। औरसौं न कबहू प्रगट आप अपुहीसौं, ऐसौं थिर चेतन-सुभाउ सुद्ध सुधा है। चेतनको अनुभौ अराधै जग तेइ जीव, जिन्हकौं अखंड रस चाखिवेकी छुधा है॥११॥ । समयसार नाटक %3D85D
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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