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________________ किया गया है, उसे काल के जानने वाले विद्वानों ने व्यवहार काल कहा है। आचार्य आगे कहते हैं यदमी परिवर्तन्ते पदार्था विश्ववर्तिनः। नवजीर्णादिरूपेण तत्कालस्यैव चेष्टितम्॥ -ज्ञा. सर्ग 6.38 लोक में रहने वाले ये समस्त पदार्थ जो नय से पुरानी अवस्था को धारण करते हैं, सब काल की चेष्टा से ही करते हैं अर्थात् समस्त द्रव्यों के परिणमन में काल की चेष्टा ही निमित्त है। श्री गुरू की पारमार्थिक शिक्षा भैया जगवासी तू उदासीढ़ के जगतसौं, एक छः महीना उपदेश मेरौ मानु रे। और संकलप विकलप के विकार तजि, बैठिकै एकांत मन एक ठौरू आनु रे।। तेरौ घट सर तामैं तूही है कमल ताको, तू ही मधुकर है सुवास पहिचानु रे। प्रापति न है है कछु ऐसौ तू विचारतु है, सही है है प्रापति सरूप यौँ ही जानु रे॥३॥ -समयसार नाटक बनारसीदास हे भाई संसारी जीव! तू संसार से विरक्त होकर एक छह महीने के लिए मेरी सीख मान, और एकान्त स्थान में बैठकर रागद्वेष की तरंगें छोड़कर चित्त को एकाग्रकर। तेरे हृदय रूप सरोवर में तू ही कमल बन और तू ही भौंरा बनकर अपने स्वभाव की सुगंध ले। जो तू यह सोचे कि इससे कुछ नहीं मिलेगा, नियम से स्वरूप की प्राप्ति होगी; आत्मसिद्धि का यही एक उपाय है। जड़ चेतन की भिन्नता वरनादिक रागादि यह, रूप हमारो नांहि। एक ब्रह्म नहि दूसरौ, दीसै अनुभव मांहि॥६॥ (समयसार नाटक) 84
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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