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________________ है, जल प्रेरणा करके मत्स्यादि जलचरों को नहीं चलाता, किन्तु वे चलते हैं तो उनको सहायक होता है। अधर्म द्रव्य दत्ते स्थितिं प्रपन्नानां जीवादीनामयं स्थितिम्। अधर्म: सहकारित्वाद्यथा छायाऽध्ववर्तिनाम्॥ - ज्ञा. सर्ग 6.34 अधर्म द्रव्य स्थिति को प्राप्त हुए जीव पुद्गलों की स्थिति करने में सहकारी है। जैसे स्वर्ग प्राप्त करते हुए पथिकों को बैठने के लिए छाया सहकारी है उसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी जीवों के ठहराने में सहकारी है, प्रेरक नहीं। आकाशद्रव्य अवकाशप्रदं व्योमसर्वगं स्वप्रतिष्ठितम्। लोकालोकविकल्पेन तस्य लक्ष्म प्रकीर्तितम्॥ -जा. सर्ग 6.35 आकाश द्रव्य अन्य पाँच द्रव्यों को अवकाश देने वाला और सर्वव्यापी है तथा स्वप्रतिष्ठित है अर्थात् स्वयं में ही आधार है, अन्य कोई आधार (आश्रय) नहीं है। यह लोक अलोक के भेद से दो प्रकार का है। काल द्रव्य लोकाकाशप्रदेशेषु ये भिन्ना अणवःस्थिताः। परिवर्ताय भावानां मुख्यकालः स वर्णितः॥ -जा. सर्ग 6.36 लोकाकाश के प्रदेश में जो काल के भिन्न-भिन्न अणु द्रव्यों का परिवर्तन करने के लिए स्थित हैं उन्हें मुख्यकाल अर्थात् निश्चयकाल कहते हैं। आचार्य आगे कहते हैं समयादिकृतं यस्य मानं ज्योतिर्गणाश्रितम्। व्यवहाराभिधः कालः सः कालज्ञै प्रपञ्चितः। ___-ज्ञा. सर्ग 6.37 जिस काल का परिणाम ज्योतिषि देवों के समूह के गमनागमन के आश्रय से समयादि भेदरूप - 83
SR No.010095
Book TitleJain Darshansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain, Nilam Jain
PublisherDigambar Jain Mandir Samiti
Publication Year2003
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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