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पुद्गल के भेद
किन्त्वेकं पुद्गलदव्यं षड्विकल्पं बुधैर्मतम्। स्थूलस्थूलादिभेदेन सूक्ष्मसूक्ष्मेणं च क्रमात्॥
(ज्ञा. सर्ग 6.30) एक-एक पुद्गल द्रव्य को विद्वानों ने स्थूल-स्थूल और सूक्ष्मादि भेदों से क्रमशः छः प्रकार का कहा है। यथा-स्थूलस्थूल-तो पृथ्वी पर्वतादिक हैं, स्थूल-जल दुग्धादिक तरल पदार्थ हैं, स्थूल सूक्ष्म-छाया आतापादि नेत्र इन्द्रिय गोचर हैं, सूक्ष्म स्थूल-नेत्र के विना अन्य चार इन्द्रियों के गोचर आने वाले शब्द गंधादिक, सूक्ष्म-कर्मवर्गणा हैं, सूक्ष्म सूक्ष्म-परमाणु हैं। इस प्रकार पुद्गल के छः भेद हुए।
संख्या में एक-एक और निष्क्रिय द्रव्य प्रत्येकमेकद्रव्याणि धर्मादीनि यथायथम्। आकाशान्तान्यमूर्तानि निःक्रियाणि स्थिराणि च॥
- ज्ञा. सर्ग 6.31 धर्म, अधर्म, आकाश, ये तीन द्रव्य भिन्न-भिन्न एक-एक द्रव्य हैं और तीनों ही अमूर्तिक हैं, और निष्क्रिय हैं, स्थिर हैं।
(2) धर्म और अधर्म द्रव्य सलो कगगनव्यापी धर्म स्याद्गतिलक्षणः। तावन्मात्रोऽप्यधर्मोऽयं स्थितिलक्ष्मःप्रकीर्तितः।।
-जा. सर्ग 6.32 धर्म द्रव्य लोकाकाश में व्याप्त है और गति में सहकारी होना उसका लक्षण है व स्वभाव है और अधर्म द्रव्य भी लोकाकाश व्यापी है और स्थिति-सहकारी उसका स्वभाव है।
धर्म द्रव्य स्वयं गन्तुं प्रवृत्तेषु जीवाजीवेषु सर्वदा। धर्मोऽयं सहकारी स्याज्जलं यदोऽङ्गिनामिव॥
-ज्ञा. सर्ग 6.33 यह धर्म द्रव्य जीव, पुद्गल का प्रेरक सहकारी नहीं है, किन्तु जीव पुद्गल स्वयं गमन करने में प्रवृत्ति करे तब यह सर्वकाल सहकारी है, जैसे-जल में रहने वाले मत्स्यादि को जल सहकारी
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