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जैन दान दश-अवयव वाले न्याय की जानकारी हमें भद्रबाहु के दशवकालिक नियुक्ति ग्रन्थ में मिलती है। ये दस अवयव हैं :
प्रतिज्ञा (अहिंसा परम धर्म है) प्रतिका-विभक्ति (जैन धर्मग्रन्थों के अनुसार अहिंसा परम धर्म है)
हेतु (जो अहिंसा का पालन करते हैं, उनपर देवताओं की कृपादृष्टि रहती है. और देवताओं का सम्मान करना पुण्यकार्य है)।
हेतु-विभक्ति (जो व्यक्ति ऐसा करते हैं, वे उच्चतम धर्मस्थानों में पहुंच सकते हैं)
विपक्ष (परन्तु हत्या करके भी आदमी सम्पन्न हो सकता है और जैन धर्मग्रन्थों की निंदा करके भी कोई व्यक्ति पुण्य कमा सकता है, जैसा कि ब्राह्मणों के साथ होता है)
विपक्ष-प्रतिषेध (ऐसा नहीं होता; यह असंभव है कि जो जैन धर्मग्रन्थों की निंदा करते हैं उनपर देवताओं की कृपादृष्टि हो या उन्हें सम्मान मिले)
दृष्टांत (अर्हत् गृहस्थों से भोजन ग्रहण करते हैं, क्योंकि कीटाणु-हत्या के भय से वह अपना भोजन पकाना नहीं चाहते)
आशंका (परन्तु गृहस्थों के पाप अहंतों को भी लगते हैं, क्योंकि वे उनके लिए भोजन पकाते हैं)
अाशंका-प्रतिषेध (ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि अहंत् अचानक ही कुछ घरों में पहुंचते हैं, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भोजन उन्हीं के लिए पकाया गया था)
नंगमन (इसलिए अहिंसा परम धर्म है)।
इस दश-अवयव वाले न्याय के बारे में दासगुप्त का कथन है : "विमर्श में अकसर कुछ अनुगामी वचनों को अपनाया जाता है, परन्तु, वस्तुतः इनकी कोई उपयोगिता नहीं होती।"16 किन्तु दासगुप्त स्वीकार करते हैं कि न्याय-वैशेषिक के पांच अवयव वाले प्रसिद्ध न्याय के पहले दस अवयव वाले न्याय का अस्तित्व रहा है। वह लिखते हैं : "जब वात्स्यायन अपने न्यायसूत्र 1, 1.32 में कहते हैं कि अन्य तर्कविदों के दस अवयवों के स्थान पर गौतम ने पांच अवयवों वाला न्याय स्थापित किया, तो उनके मन में संभवतः जैनमत रहा होगा।""
14. एस. एन. दासगुप्त द्वारा उद्धत, पृ. 186 15. वही, पृ. 156 16. बही