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जैन दर्शन
करता । इस पुस्तक की रचना में मेरी यही मान्यता काम करती रही कि धारणाओं की गहराइयों में उतरकर यदि हम सामान्य समझ के छिलके को दक्षता से उतार फेंकते हैं, तो जैन धर्म के सर्वांगीण महत्त्व को भलीभांति समझा जा सकता है । जैन मुनि आचार्य तुलसी द्वारा उद्घाटित अणुव्रत आन्दोलन के बारे में भी पुस्तक में कुछ पृष्ठ हैं । इनसे स्पष्ट होगा कि पुरातन जैन धारणाओं को पुनर्जीवित किया जा सकता है, और वर्तमान परिस्थितियों में उनका सदुपयोग किया जा सकता है।
यहां अपने उन विद्यार्थियों के प्रति आभार व्यक्त करना जरूरी समझता हूं जिनकी सहज जिज्ञासा ने मुझे प्रोत्साहित किया और जैन धर्म को गहराई से समझने की अतिस्पृहा ने इस पुस्तक की रचना को संभव बनाया है । प्रकाशक ने पुस्तक में गहरी दिलचस्पी दिखायी और इसे जल्दी प्रकाशित किया, इसलिए उन्हें भी धन्यवाद देता हूं। समाप्त करने के पहले मैं अपनी पत्नी उमा के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करता हूं जिन्होंने पुस्तक के संपादन काल में और शब्दानुक्रमणिका तथा पुस्तक-सूची तैयार करने में मेरी सहायता की है।
एस. गोपालन
२६ मई, 1973 दर्शनशास्त्र के उच्च अध्ययन का केन्द्र, मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास-600005