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जैन ज्ञानमीमांसा
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ज्ञान को सामान्यतः भावों में बांटा जा सकता है-बाह्य जगत् के बारे में भाव, अन्य व्यक्तियों के बारे में भाव तथा स्वयं के बारे में भाव । इन तीनों वर्गों में से प्रत्येक से सम्बन्धित जो भाव हैं, वे तभी ज्ञान बनते हैं जब ज्ञाता उन्हें व्यवस्थित रूप से ग्रहण करके आत्मसात करता है । यह स्पष्ट ही है कि सभी भाव एक ही मूल्य अथवा कौटि के नहीं होते। क्योंकि कुछ भावों या विचारों को हम सत्य मानते हैं और कुछ को असत्य । सत्य तथा असत्य भावों के इस भेद के कारण हम ज्ञान में भी यथार्थ ज्ञान और अयथार्थ ज्ञान का भेद करते हैं । परन्तु इसके लिए पहले संपूर्ण ज्ञान की उत्पत्ति तथा सिद्धि पर विचार करना जरूरी है । ज्ञान के इस प्रकार के सर्वांगीण अध्ययन को ज्ञानमीमांसा कहते हैं ।
चूंकि ज्ञान के लिए ज्ञाता तथा शेय वस्तु की आवश्यकता होती है, इसलिए ज्ञाता शेय को किस प्रकार जानता है, यह समझने के लिए ज्ञान के साधनों का विश्लेषण करना जरूरी है। भारतीय ज्ञानमीमांसा में ज्ञान के साधनों को प्रमाण कहते हैं और शेय वस्तुओं को प्रमेय । गौतम के न्यायसूत्र में हमें पहली बार प्रमाण के बारे में सुब्यवस्थित जानकारी मिलती है; उसमें प्रमेय का भी विवेचन है । बाद में प्रमाण का अध्ययन प्रमेय के अध्ययन से अलग हो गया। तबसे तर्कशास्त्र तथा ज्ञानमीमांसा पर अनेक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ ।
ऐसा प्रयास हमें सर्वप्रथम जैन तथा बौद्ध दार्शनिकों के ग्रन्थों में देखने को मिलता है। जैन ग्रन्थ भगवतीसूत्र में एक उल्लेख है, जिसमें भगवान महावीर द्वारा कहलाया गया है- "प्रमाण चार प्रकार के हैं: प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम जैन दर्शन में सामान्यतः यह चार प्रमाण स्वीकृत हैं, परन्तु कभी-कभी केवल तीन प्रमाणों का भी उल्लेख मिलता है। उदाहरणार्थ, स्थानांग་་ 'में केवल तीन प्रमाणों की जानकारी है : प्रत्यक्ष, आगम और अनुमान । जैन ग्रन्थों के इन विवेचनों से इस तथ्य की जानकारी मिलती है कि जैन दार्शfirst ने प्रमाणों पर स्वतंत्र रूप से विचार किया है; परन्तु इसका अर्थ यह कदापि
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