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जैन दर्शन
ata exert के भिक्षुओं के लिए भी नियम है कि वे अपने पास ऐसा कुछ न रखें जिसे वे 'व्यक्तिगत' कह सकें ।
"संन्यासी को ब्रह्मचारी होना चाहिए।"" जैन सम्प्रदाय का चौथा महाव्रत भी ठीक यही है। बौद्धों का यह पांचवां शील है ।
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"संन्यासी को वर्षाकाल में अपना निवास नहीं बदलना चाहिए।' यह नियम हमें अन्य दोनों सम्प्रदायों में देखने को मिलता है ।
"संन्यासी अपनी बाचा, दृष्टि तथा कर्म पर संयम रखेगा ।" यहां हमें जैनों की तीन गुप्तियों का स्मरण हो आता है ।
"संन्यासी पेड़-पौधों के उन्हीं अंशों को ग्रहण करेगा जो अपने-आप अलग हो गये हैं। कुछ इसी तरह का नियम जैन सम्प्रदाय में भी है। जैन मुनि केवल उन्हीं साग-सब्जियों तथा फलों आदि का सेवन कर सकते हैं जिनमें जीवन का कोई अंश न हो ।
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"संन्यासी बीजों का नाश नहीं करेगा।"" जैन सम्प्रदाय ने इस नियम में सभी जीवित प्राणियों का समावेश कर लिया है और अपने अनुयायियों को उपदेश दिया है कि वे अण्डों, जीवित प्राणियों, बीजों, अंकुरों आदि को चोट न पहुंचायें ।
"संन्यासी का कोई बुरा करे या भला, उसे विरक्त बने रहना चाहिए। "34 जैन सम्प्रदाय में भी इस विरक्त भाव को महत्त्व दिया गया है, यह बात महावीर के जीवन के एक प्रसंग से स्पष्ट होती है : "चार से भी अधिक महीने तक उनके शरीर पर नाना तरह के प्राणी एकत्र हुए, रेंगते रहे और उन्हें पीड़ा पहुंचाते रहे ।
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"संन्यासी को जल छानने के लिए अपने पास एक वस्त्र रखना चाहिए।"* समापन के पहले यहां हम एक ऐसे विद्वान का उल्लेख करना चाहेंगे जिन्होंने जैन धर्म का गहन अध्ययन करने के अनन्तर अपने विचार बदले हैं। वाशबर्न हॉपकिन्स ने आरंभ में जैन धर्म की बड़ी कटु समीक्षा की है। उन्होंने लिखा कि
18. 'गौतम' II1.12
19. वही, III.13; तुल०-- ' बौधायन' : 11, 6, 11, 20
20. बही, J11.17
21. वहीं, 111.20
22. 'आचारांय', 11.1.7.6
23. 'गौतम' III. 23
24. 'वौतम' : III. 24
25. 'आचारोग', I. 8. 1. 2 26. 'बौधायन' : 11, 6, 11, 14