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________________ . जैन दर्शन 174 मावश्यक मानता है कि सामान्य मनुष्य के विचार एवं आचरण को अहिंसा तथा अपरिग्रह की ओर मोड़ना जरूरी है। जहां परम्परागत जैन धर्म में गृहस्थों के लिए निर्धारित अणुव्रतों तथा मुनियों के लिए निर्धारित महाव्रतों में भेद किया गया है, वहां अणुव्रत आंदोलन में शुरुआत के, बीच के तथा उन्नतावस्था के अणुव्रतियों में भेद किया गया है । इन्हें क्रमश: प्रवेशक अगुवती, मनुवती तथा विशिष्ट अणुव्रती कहा गया है। परम्परामत जैन धर्म में अहिंसा के व्रत का विधान शुद्ध रूप से आध्यात्मिक विकास तथा संसार के हर प्रकार के जीवन के प्रति दयाभाव की दृष्टि से किया गया है । अणुव्रत आंदोलन में आध्यात्मिक उन्नति के स्थान पर सामाजिक मूल्यों की स्थापना नहीं की गयी है; परन्तु समाज के हितों का स्पष्ट रूप से ध्यान रखा गया है । हिंसा, लोभ तथा घृणा से ग्रसित संसार की परिस्थितियों पर विचार करने से ही इस आन्दोलन का जन्म हुआ है। यद्यपि सामाजिक परिस्थितियों का विश्लेषण किया गया था, परन्तु सुझाये गये उपाय सिर्फ सामाजिक सम्बन्धों की पुनर्रचना या संस्थाओं में कानूनी परिवर्तन करने के लिए नही थे । इस सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए आचार्य ने लिखा है : "शस्त्रों तथा प्रक्षेपणास्त्रों की होड़ से और युद्ध तथा शीतयुद्ध के धक्कों से आदमी जर्जर हो गया है। उसके लिए आत्मशुद्धि के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं रह गया है। यदि इस में परिवर्तन नहीं हुआ, तो संसार का विनाश बहुत दूर नहीं है । यह आंदोलन बताता है कि आदमी को शस्त्रों में नहीं बल्कि अहिंसा में विश्वास रखना चाहिए। जागतिक प्रगति को सर्वाधिक महत्त्व देने की बजाय उसे अपनी आत्म-चेतना को जागृत करना चाहिए।"5 "अर्थशास्त्री कहते हैं कि इसका (समाज का) मुख्य ध्येय अधिकाधिक उपज करना है । ऊपरी सतह से देखने पर लगता है कि काफी हद तक समस्या का हल खोज लिया गया है। परन्तु मैं नहीं समझता कि इसका हल तब तक संभव है जब तक हम अतिलोभी बने रहते हैं। इसका एकमात्र हल है -- आत्मशुद्धि । एक समर्पित जीवन न केवल हमें शांति प्रदान करता है, अपितु आर्थिक समस्याओं का भी हल खोज निकालता है। ___ अपरिपह : परम्पर से इसपरा इसलिए बल दिया जाता रहा कि यह ऐसी परिस्थितिया पैदा करता है जिनमें आसक्ति तथा सभी अनुचर दुष्कर्म नष्ट हो जाते हैं । यह आधुनिक आंदोलन परिग्रह की दशा में, चारित-अभाव के कारण, जीव पर अजीब के होने वाले दुष्ट प्रभावों की उपेक्षा नहीं करता । अपरिग्रह 5. वही, पृ. 27 6. वही, पृ.29
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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