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अणुव्रत आंदोलन
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प्रसिद्ध जैन मुनि आचार्य तुलसी द्वारा राजस्थान में 1949 ई० में शुरू किया गया अणुव्रत आंदोलन जैन धर्म के सजीवत्व और उसमें जीवन तथा संसार के कल्याण के तत्त्व विद्यमान होने का स्पष्ट प्रमाण है। इसलिए इस आंदोलन में जैन धर्म के परम्परागत व्रतों एवं विश्वासों का समावेश किया गया है। परन्तु इन्हें जिस प्रकार प्रस्तुत किया गया है उससे पता चलता है कि जिस समय इस आन्दोलन के बारे में सोचा गया था और इसकी नींव डाली गयी थी (यह अब भी जारी है) उस समय तक व्यक्ति तथा समाज काफी दूषित हो चुका था, और उस समय चारित्र-निर्माण की तुरंत आवश्यकता अनुभव की गई थी। आचार्य तुलसी के मतानुसार जैन धर्म का उद्देश्य (व्यवहारिक) दृष्टि से मनुष्य के चारित्र का विकास करना है। ___ उनका विश्वास है कि आत्मशुद्धि तथा आत्मसंयम से समाज के दूषण अपने-आप दूर हो जाते हैं। इसलिए उनके मतानुसार यह विचार ठीक नहीं है कि धर्म का कार्य समाज को नियंत्रण में रखना है। व्यक्ति के चारित्र का विकास होने से सामाजिक नैतिकता का स्तर अवश्य ऊंचा होता है, परन्तु यह धर्म का मुख्य उद्देश्य नहीं है । व्यापक दृष्टि से सभी धर्मों के बारे में, विशेषत: जैन धर्म के बारे में, अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए वह लिखते हैं : "दीक्षा ग्रहण करते समय मुनि प्रतिज्ञा करता है कि आत्मकल्याण के लिए वह जीवन भर पांच महाव्रतों का पालन करेगा। व्रत की परिणति मुक्ति में होती है। इससे सहजत: समाज का नियंत्रण भी होता है, परन्तु यह इसका मुख्य परिणाम नहीं है। इसलिए उनका विचार है कि, यहां पृथ्वी पर ख्याति-प्राप्ति के लिएया आगामी जीवन के 'बेहतर भविष्य के लिए धर्म का पालन करना-दोनों ही बातें गलत है। व्यक्ति के लिए धर्म का महत्त्व इस बात में मौजूद है कि आत्मशुद्धि के लिए इसका पालन करने से अपने-आप इस लोक (समाज) तथा ' अगले में इसके सुफल मिल जाते हैं। अत: धर्म में व्यक्ति को जो महत्त्व दिया
1. बाचार्य तुलसी, 'कन टेलेक्ट कॉम्प्रीहेंर रिलिजन ?', (गुरु : बाद साहित्य
संग, 1969), १.67