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जैन दर्शन
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ऋजुसूत्र नय ___ यह नय वस्तु के वर्तमान पर्याय या रूप को ही महत्त्व देता है। यह न केवल अतीत और भविष्य पर विचार नहीं करता, बल्कि सम्पूर्ण वर्तमान को भी महत्त्व नहीं देता। यह वस्तु के अस्तित्व की क्षणावस्था यानी गणितीय वर्तमान का चुनाव करता है। भूत बीत चुका होता है और भविष्य अभी अजन्मा रहता है, इसलिए किसी अविद्यमान या अजन्मी वस्तु की चर्चा असंगत होगी। हम केवल वर्तमान, गणितीय तत्क्षण के बारे में ही दृढ़मत हो सकते हैं। इस दृष्टिकोण को एक उदाहरण द्वारा समझाया गया है : अभिनेता को तभी राजा समझा जाता है जब वह रंगमंच पर राजा का अभिनय करता होता है। रंगमंच के बाहर उसे राजा समझना उचित नहीं है। ___ अनुभवजन्य से वर्तमान के इस चुनाव पर भी अधिक जोर देना उचित नहीं है । वस्तु-जगत् के इस वर्तमान की महत्ता तथा सापेक्ष सत्यता को स्वीकार करने के साथ-साथ हमें इसके सातत्य स्वरूप को भी स्मरण रखना चाहिए।'
शब्द नय __यह नय समानार्थी शब्दों से सम्बद्ध है। समानार्थी शब्द उनमें निहित विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त होते हैं। काल, विभक्ति-प्रत्यय, आदि में अन्तर होने पर भी अर्थों का साम्य विद्यमान रहता है। जैन ग्रन्थों में इस नय के हमें दो उदाहरण देखने को मिलते हैं। कुंभ, कलश और घट एक ही वस्तु - घड़े - के द्योतक हैं। इसी प्रकार इन्न, शुक तथा पुरन्दर जैसे नाम भी एक ही व्यक्ति के द्योतक हैं । परन्तु यहां विभिन्न समानार्थी शब्दों या नामों में पूर्ण तादात्म्य होने की बात नहीं कही गयी है। जब पूर्ण तादात्म्य का दावा किया जाता है, तो वह शम्बनयमास दोष होगा। समभिरूढ़ नय
एक अर्थ में यह नय पहले नय के एकदम विपरीत है। यह नय शब्दभेदों पर विचार करता है। समानार्थी शब्द भी इसके अपवाद नहीं हैं । जो शब्द हमें सामान्यत: समानार्थी प्रतीत होते हैं, वे भी उनके उत्पत्तिमूलक अध्ययन के बाद असमान प्रकट होगे। उदाहरण के लिए, इन्द्र शब्द 'समृद्धिशाली' के लिए, शक, शब्द 'शक्तिशाली' के लिए और पुरन्दर शब्द 'शत्र हता' के लिए प्रयुक्त होते हैं। शब्दों के मूलार्थों का भेद बास्तविक भेद होता है, और तदनुसार शब्दों के बाह्याओं में भी भेद होते हैं। एक प्राचीन जैन विद्वान के अनुसार, इस नय को
4. देखिये, सी० जे० पद्मराजिह, पूर्वो०, ३० 320