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________________ 132 जैन दर्शन नंगम नय विश्व की प्रत्येक वस्तु के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि इसमें सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के गुण निहित रहते हैं। इसलिए उस वस्तु को सामान्य और विशेष गुणों के एक सम्मिश्रण के रूप में ही ग्रहण किया जा सकता है। नंगम नय वस्तु के सामान्य और विशेष स्वरूपों में से किसी की भी उपेक्षा नहीं करता। इसका अर्थ यह हुआ कि सामान्य को हम विशेष के बिना नहीं समझ सकते, और विशेष को सामान्य के बिना नहीं समझ सकते । उदाहरणार्थ, "मैं सचेतन है", यह तर्कवाक्य न केवल "मैं" की व्यक्तिता का, बल्कि 'मैं' द्वारा धारण किये गये सार्वभौमिक गुण 'चेतना' का भी योतक है। नंगम नय में सामान्य तथा विशेष में जो अभेद है, उसका विश्लेषण बड़ा महत्त्वपूर्ण है । सामान्य और विशेष के एकीकरण का स्पष्ट अर्थ यह है कि जैन दार्शनिकों ने इन दोनों में पूर्ण अभेद या तादात्म्य का आरोपण करने की गलती नहीं की है । भेद का निर्देश है, परन्तु केवल सापेक्ष रूप में। इसी दृष्टिकोण से जैनों ने न्याय-वैशेषिक की, दो तत्त्वों के बीच पूर्ण भेद करने के लिए, आलोचना की है। न्याय-वैशेषिक की तरह जब ऐसा स्पष्ट भेद किया जाता है, तो उसे नेगमाभास दोष कहते हैं। जैन परम्परा में पायी जानेवाली नंगम नय की एक और व्याख्या के अनुसार, यह एक या अनेक कार्यों का अंतिम अभिप्राय दरशाता है। इसके लिए तस्वार्थसार में एक उदाहरण है। एक व्यक्ति पानी, चावल और ईंधन लेकर जा रहा है। पूछे जाने पर कि वह क्या कर रहा है, वह उत्तर देता है: "खाना पका रहा हूं", बजाय यह कहने कि, "मैं ईंधन ले जा रहा हूं", इत्यादि । इसका अर्थ यह हुआ कि, प्रत्येक क्रिया-पानी लाना, इंधन जमा करना, आदि-एक उद्देश्य या प्रयोजन-भोजन बनाना-द्वारा नियंत्रित है। उत्तर देने के समय भोजन पकाने का काम नहीं होता, परन्तु इसकी प्राप्ति के लिए की जानेवाली हर क्रिया में प्रयोजन निहित रहता है। संग्रह नय यह वस्तुओं के विशिष्ट गुणों को नहीं, बल्कि सामान्य गुणों या वर्गविशेषताओं को समझने का दृष्टिकोण है । इसका अर्थ यह नहीं है कि यह दृष्टिकोण उस मान्यता का विरोधी है जिसमें पदार्थों को सामान्य तथा विशेष के सम्मिश्रण के रूप में ग्रहण किया जाता है या पदार्थों के केवल विशेष गुणों पर विचार किया जाता है । यह ऐसा शुद्ध विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण है जिसके द्वारा 3. वाई० जे० पद्मराजिह, पूर्वो०, १० 314 पर बत
SR No.010094
Book TitleJain Darshan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorS Gopalan, Gunakar Mule
PublisherWaili Eastern Ltd Delhi
Publication Year
Total Pages189
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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