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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
[९१ बाले वृक्षों का सार खींच लेती है। कई वृक्ष रत-शोषक भी होते हैं। इसलिए बनस्पति में प्राहार-संशा होती है। 'छुई-मुई' आदि स्पर्श के भय से सिकुड़ जाती है, इसलिए वनस्पति में भय-संज्ञा हाती है। 'कुलबक' नामक वृक्ष स्त्री के आलिंगन से पल्लवित हो जाता है और 'अशोक' नामक वृक्ष स्त्री के पादपात से प्रमुदित हो जाता है, इसलिए बनस्पति में मैथुन-संशा है। लताऐं अपने तन्तुओं से वृक्ष को बीट लेती हैं, इसलिए बनस्पति में परिग्रह-संशा है। 'कोकनद' (रक्तोत्पल ) का कंद क्रोध से इंकार करता है। 'सिदंती' नाम की बेल मान से मरने लग जाती है। लताएँ अपने फलों को माया से टाक लेती हैं। बिल्व और पलाश आदि वृक्ष लोम से अपने मूल निधान पर फैलते हैं। इससे जाना जाता है कि बनस्पति में क्रोध, मान, माया और लोभ भी है। लताएं वृक्षों पर चढ़ने के लिए अपना मार्ग पहले से तय कर लेती हैं, इसलिए वनस्पति में औष-संज्ञा है। रात्रि में कमल सिकुड़ते हैं, इसलिए वनस्पति में लोक-संशा है।
वृक्षों में जलादि सींचते हैं वह फलादि के रस के रूप में परिणत हो जाता है, इसलिए वनस्पति में उछवास का सद्भाव है। स्नायविक धड़कनों के बिना रस का प्रसार नहीं हो सकता । जैसे मनुष्य-शरीर में उछवास से रक्त का प्रसार होता है और मृत-शरीर में उछ्वास नहीं होता, अतः रक्त का प्रसार भी नहीं होता, इसलिए वनस्पति में उछवास है। इत्यादि अनेकों युक्तियों से वनस्पति की सचेतनता सिद्ध की गई है। ___वनस्पतिकाय के दो भेद हैं-(१) साधारण (२) प्रत्येक । एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं। वह साधारण-शरीरी, अनन्त काय या सूक्ष्म-निगोद है। एक शरीर में एक ही जीव होता है, वह प्रत्येक-शरीरी है । संघीय जीवन
साधारण-वनस्पति का जीवन संघ-बद्ध होता है। फिर भी उनकी आत्मिक सत्ता पृथक्-पृथक रहती है। कोई भी जीव अपना अस्तित्व नहीं गंवाता। उन एक शरीराश्रयी अनन्त जीवों के सूक्ष्म शरीर तैजस और कार्मण पृथकपृथक होते हैं। उन पर एक-दूसरे का प्रभाव नहीं होता। उनके साम्यवादी जीवन की परिभाषा करते हुए बताया है कि-"साधारण बनस्पति का एक