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जैन दर्शन के मौलिक तत्व फिर उत्तेजित करने पर वह दूर हो जाती है। उन्होंने सूक्ष्म छानबीन के बाद बताया कि धान्यादि पदार्थ भी थकते हैं, चंचल होते हैं, विष से मुरझाते हैं, नशे से मस्त होते हैं और मरते हैं...अन्त में यह प्रमाणित किया कि संसार के सभी पदार्थ सचेतन है । वेदान्त की भाषा में सभी पदार्थों में एक ही चेतन प्रवाहित हो रहा है। जैन की भाषा में समूचा संसार अनन्त जीवों से व्यास है। एक अणुमात्र प्रदेश भी जीवों से खाली नहीं है ।
वनस्पति की सचेतनता सिद्ध करते हुए उसकी मनुष्य के साथ तुलना की
जैसे मनुष्य शरीर जाति, (जन्म) धर्मक है, वैसे वनस्पति भी जाति-धर्मक है ।जैसे मनुष्य-शरीर बालक, युवक व वृद्ध अवस्था प्राप्त करता है, वैसे वनस्पति शरीर भी। जैसे मनुष्य सचेतन है, वैसे वनस्पति भी। जैसे मनुष्य शरीर छेदन करने से मलिन हो जाता है, वैसे वनस्पति का शरीर भी। जैसे मनुष्य-शरीर श्राहार करने वाला है, वैसे वनस्पति-शरीर भी। जैसे मनुष्य-शरीर अनित्य है, वैसे वनस्पति का शरीर भी। जैसे मनुष्य का शरीर अशाश्वत है (प्रतिक्षण मरता है ), वैसे वनस्पति के शरीर की भी प्रतिक्षण मृत्यु होती है। जैसे मनुष्य-शरीर में इष्ट और अनिष्ट आहार की प्राप्ति से वृद्धि और हानि होती है, वैसे ही वनस्पति के शरीर में भी। जैसे मनुष्य-शरीर विविध परिणमनयुक्त है अर्थात् रोगों के सम्पर्क से पाण्डुत्व, वृद्धि, सूजन, कृशता, छिद्र आदि युक्त हो जाता है और औषधि सेवन से कान्ति, बल, पुष्टि आदि युक्त हो जाता है, वैसे बनस्पति-शरीर भी नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर पुष्प, फल और त्वचा विहीन हो जाता है और औषधि के संयोग से पुष्प, फलादि युक्त हो नाता है। अतः वनस्पति चेतना युक्त है।
वनस्पति के जीवों में अव्यक्त रूप से दस संज्ञाएं होती हैं। संज्ञा कहते हैं अनुभव को। दस संशाओं के नाम निम्नोक्त हैं :
आहार-संशा, भय-संशा, मैथुन-संज्ञा, परिग्रह-संज्ञा, क्रोध-संशा, मान संज्ञा, माया-संशा, लोभ-संशा, ओघ-संशा, एवं लोक-संशा। इनको सिद्ध करने के लिए टीकाकारों ने उपयुक्त उदाहरण भी खोज निकाले हैं। वृक्ष जल का श्राहार तो करते ही हैं। इसके सिवाय 'अमर बेल' अपने आसपास होने