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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व 14 करते हैं। सम्मर्छनज प्राणी उत्पत्ति क्षेत्र के पुद्गलों का आहार करते हैं । गर्मज प्राणी का प्रथम श्राहार रज-वीर्य के अणुओं का होता है। देवता अपने-अपने स्थान के पुद्गलों का संग्रह करते हैं। इसके अनन्तर ही उत्पन्न प्राणी पौद्गलिक शक्तियों का क्रमिक निर्माण करते हैं। वे छह है-श्राहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन । इन्हें पर्याप्ति कहते हैं। कम से कम चार पर्याप्तियां प्रत्येक प्राणी में होती है। जन्म ५-लोगस्सय सासयं भावं. संसारस्सय अणादिभावं, जीवस्सय णि च भावं,
कम्म बहुत्तं, जम्मणमरण बाहुल्लं, च पडु च नत्यि केह परमाणुपोग्गल मेते वि पएसे जत्थणं अयं जीवे न जाए, वा न। मएवावि से तेणटटेणं तं
चेव जाव न मए वावि... [-भग १२।७] २-असई वा अतखुत्तो...... -भग ३-न मा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं ।
ण जाया ण सुश्रा जत्थ, सव्वे जीवा अणंतसो
लोक शाश्वत है, संसार अनादि है, जीव नित्य है। कर्म की बहुलता है, जन्म-मृत्यु की बहुलता है, इसीलिए एक परमाणु मात्र भी लोक में ऐमा स्थान नहीं, जहाँ जीव न जन्मा हो और न मरा हो।
ऐसी जाति, योनि, स्थान या कुल नहीं, जहाँ जीव अनेक बार या अनन्त बार जन्म धारण न कर चुके हों।
जब तक आत्मा कर्म-मुक्त नहीं होती, तब तक उसकी जन्म-मरण की परम्परा नहीं रुकती। मृत्यु के बाद जन्म निश्चित है। जन्म का अर्थ है उत्पन्न होना। सब जीवों का उत्पत्ति-क्रम एकसा नहीं होता। अनेक जातियां हैं, अनेक योनियां हैं और अनेक कुल हैं। प्रत्येक प्राणी के उत्पत्ति-स्थान में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का कुछ न कुछ तारतम्य होता ही है। फिर भी उत्पत्ति की प्रक्रियाएं अनेक नहीं हैं। सब प्राणी तीन प्रकार से उत्पन्न होते हैं। अतएव जन्म के तीन प्रकार बतलाए गए हैं-सम्मूर्छन, गर्म और उपपात । जिनका उत्पत्ति स्थान नियत नहीं होता और जो गर्भ धारण नहीं करते, उन जीवों की उत्पत्ति को 'सम्मूर्छन' कहते हैं। कई चतुरिन्द्रिय तक के