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जैन दर्शन के मौलिक तत्व हृदय कमल के भीतर यह मेरा आत्मा पृथ्वी, अन्तरिक्ष, धुलोक अथवा इन सब लोकों की अपेक्षा बड़ा है ।
जीव संख्या की दृष्टि से अनन्त हैं। प्रत्येक जीव के प्रदेश या अविभागी अवयव असंख्य हैं। जीव असंख्य प्रदेशी है। अतः व्यास होने की क्षमता की दृष्टि से लोक के समान विराट है । 'केवली-समुद्घात' की प्रक्रिया में आत्मा कुछ समय के लिए व्यापक बन जाती है। 'मरण-समुद्घात के समय भी आंशिक व्यापकता होती है ।
प्रदेश-संख्या की दृष्टि से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव-ये चारों समतुल्य है । अवगाह की दृष्टि से सम नहीं हैं। धर्म, अधर्म और आकाश स्वीकारात्मक और क्रिया प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति शून्य है, इसलिए उनके परिमाण में कोई परिवर्तन नहीं होता। संसारी जीवों में पुद्गलों का स्वीकरण और उनकी क्रिया प्रतिक्रिया-ये दोनों प्रवृत्तियां होती है, इसलिए उनका परिमाण सदा समान नहीं रहता। वह संकुचित या विकसित होता रहता है। फिर भी अणु जितना संकुचित और लोकाकाश जितना विकसित (केवली समुद्घात के सिवाय ) नहीं होता, इसलिए जीव मध्यम परिमाण की कोटि के होते हैं।
संकोच और विकोच जीवों की स्वभाव-प्रक्रिया नहीं है-वे कार्मण शरीर सापेक्ष होते हैं। कर्म-युक्त दशा में जीव शरीर की मर्यादा में बन्धे हुए होते हैं, इसलिए उनका परिमाण स्वतन्त्र नहीं होता। कार्मण शरीर का छोटापन और मोटापन गति-चतुष्टय सापेक्ष होता है। मुक्त-दशा में संकोच-विकोच नहीं-वहाँ चरम शरीर के ठोस भाग-दो तिहाई भाग में आत्मा का जो अवगाह होता है, वही रह जाता है। ___ अात्मा के संकोच-विकोच की वीपक के प्रकाश से तुलना की जा सकती है। खुले आकाश में रखे हुए दीपक का प्रकाश अमुक परिमाण का होता है। उसी दीपक को यदि कोठरी में रख दें तो बही प्रकाश कोठरी में समा जाता है। एक घड़े के नीचे रखते हैं तो घड़े में समा जाता है। दकनी के नीचे रखते हैं तो ढकनी में समा जाता है। उसी प्रकार कार्मण शरीर के श्रावरण से आत्म-प्रदेशों का भी संकोच और विस्तार होता रहता है।