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जैन दर्शन के मौलिक तत्व
[३३ . और आत्मा नहीं है यह भी कहा है । तथा बुद्ध ने आत्मा और . अनात्मा किसी का भी उपदेश नहीं किया।
बुद्ध ने आत्मा क्या है ? कहाँ से आया है ! और कहाँ जाएगा!-इन प्रश्नों को अभ्याकृत कहकर दुःख और दुःख-निरोध-इन दो तत्वों का ही मुख्यतया उपदेश किया। बुद्ध ने कहा, "तीर से आहत पुरुष के घाव को ठीक करने की बात सोचनी चाहिए । तीर कहाँ से आया, किमने मारा आदिआदि प्रश्न करना व्यर्थ है।"
बुद्ध का यह 'मध्यम मार्ग' का दृष्टिकोण है। कुछ बौद्ध मन. को भौतिक तत्त्वों से अलग स्वीकार करते हैं।
नैयायिकों के अनुमार आत्मा नित्य और विभ है। इच्छा, द्वेष, प्रयन, सुख-दुःख, ज्ञान-ये उसके लिङ्ग हैं। इनसे हम उसका अस्तित्व जानते हैं। मांख्य श्रात्मा को नित्य और निष्क्रिय मानते हैं, जैसे
"अमूर्त. श्चेतना भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। .
अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्मः, प्रान्मा कपिलदर्शने ॥ सांख्य जीव को कर्ता नहीं मानत, फल भोक्ता मानते हैं। उनके मतानुसार कन शक्ति प्रकृत्ति है।
वेदान्ती अन्तःकरण से परिवेष्टित चैतन्य को जीव वतलाते हैं। उसके अनुमार-"एक एव हि भूतात्मा, भूत-भूने व्यवस्थितः"-स्वभावतः जीव एक है, परन्तु देहादि-उपाधियों के कारण नाना प्रतीत होता है।
परन्तु रामानुज-मत में जीव अनन्त हैं, वे एक दूसरे से सर्वथा पृथक है।
वैशेषिक सुख-दुःख श्रादि की समानता की दृष्टि से अात्मैक्यवादी और व्यवस्था की दृष्टि से प्रात्मा नैक्यबादी है ।
उपनिषद और गीता के अनुसार आत्मा शरीर से विलक्षण मन से.. भिन्न विमु-ब्यापक' और अपरिणामी है ११ वह वाणी द्वारा अगम्य है । उसका विस्तृत स्वरूप नेति नेति के द्वारा बताया है वह न स्यून है, ने अणु है, न शुद्र है, न विशाल है, न अरुण है, न द्रव है, न बाया है, न तम है, न वायु है, न आकाश है, न संघ है, न स है, न गन्ध है, न नेत्र है,