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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व
वैसे ही जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-योग्य पुद्गल अपने आप कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं ।
(१४) जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध और उसका उपाय द्वारा विसम्बन्ध :---
जैसे सोने और मिट्टी का संयोग अनादि है, वैसे ही जीव और कर्म का संयोग ( साहचर्य ) भी अनादि है । जैसे अग्नि आदि के द्वारा सोना मिट्टी से पृथक होता है, वैसे ही जीव भी संबर- तपस्या आदि उपायों के द्वारा कर्म से पृथक हो जाता है ।
(१५) जीव और कर्म के सम्बन्ध में पौर्वापर्य नहीं :
जैसे मुर्गी और अण्डे में पौर्वापर्य नहीं, वैसे ही जीव और कर्म में भी पौर्वापर्य नहीं है। दोनों श्रनादि सहगत हैं ।
भारतीय दर्शन में आत्मा का स्वरूप
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा चैतन्य स्वरूप, परिणामी स्वरूप को अक्षुण्ण रखता हुआ विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होने वाला ( कूटस्थनित्य नहीं हैं ), कत्र्ता और भोक्ता स्वयं अपनी सत् असत् प्रवृत्तियों से शुभ-अशुभ कर्मों का संचय करने वाला और उनका फल भोगने वाला, स्वदेह परिमाण, न , न विभु ( सर्वव्यापक ) किन्तु मध्यम परिमाण का है
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क्षण-क्षण नष्ट और
तत्त्व, काया ) के श्रात्मा नहीं हैं।
बौद्ध अपने को अनात्मवादी कहते हैं। वे आत्मा के अस्तित्व को वस्तु सत्य नहीं, काल्पनिक - संज्ञा ( नाम ) मात्र कहते हैं। उत्पन्न होने वाले विज्ञान (चेतना) और रूप ( भौतिक संघात संसार यात्रा के लिए काफी हैं। इनसे परे कोई नित्य बौद्ध अनात्मवादी होते हुए भी कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष को स्वीकार करते हैं । श्रात्मा के विषय में प्रश्न पूछे जाने पर बौद्ध मौन रहे हैं | इसका कारण पूछने पर बुद्ध कहते हैं कि - "यदि मैं कहूँ आत्मा है तो लोग शाश्वतवादी बन जाते हैं, यदि यह कहूँ कि आत्मा नहीं है तो लोग उच्छेदबादी हो जाते हैं। इसलिए उन दोनों का निराकरण करने के लिए में मौन रहता हूँ,” एक जगह नागार्जन लिखते हैं- "बुद्ध ने यह भी कहा कि आत्मा है