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________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्व (ख) जहवा तिल पप्पाडिया, बहूहिं तिलेहिं संहता संति । पत्तेय सरीराणं, वह होति सरीर संघाया । प्रज्ञा० प० १ १४ -- लोगागास परसे, परित जीवं ठवेहिं एक्केकं । ४०४ ] एवं मविजमाणा, हन्ति लोया असंक्वेज्जा | प्रशा० पद १ १५ - संहनन का अर्थ है अस्थि रचना । श्रस्थि-रचना छह प्रकार की होती है, अतः संहनन के छह भेद हैं-ऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच अर्धनाराच, कोलक और सेवा । 1 १६ - संस्थान का अर्थ है श्राकृति-रचना । यों तो जितने प्राणी उतनी ही श्राकृतियां हैं लेकिन उनके वर्गीकरण से छह ही प्रकार होते हैं यथा - समचतुरस्र, न्यग्रोध- परिमण्डल, सादि, वामन, कुब्ज और हुण्डक । १७ - नया० ( सितम्बर १६५३) विज्ञान और कम्युनिज्म- जे० प्रो० सी० डी० डार्लिंगटन १८ - कहिणं भंते ! सम्मूच्छिम मणुस्सा सम्मुच्छन्ति ? गोमा ! गग्भ वक्कंतियमणुस्साण चेव उच्चारेसु वा पासवणेसुवा, खेलेसुना सिंघाणेसुवा, वन्तेसु वा, पित्सु वा, पूपसु वा सुक्केसु वा, सुक्कपोगूगलपरिसाडेसु वा, विगयकलेवरेसु वा इत्यीपूरीस संजोए वा, नगर निद्धमणेसुवा, सव्वे सुचेव सुइरस ठाणेसु एत्यणं सम्मूच्छिममगुस्सा सम्मुच्छन्ति, अंगुलस्स श्रसंखिज्ज मागमिची एश्रोगाहणाए सन्नीfreshest अन्नाणी सब्बाही पज्जतीहि अपजत्तगा तो मुहूताच्या चेव काल करेंति प्रज्ञा० पद १ १६- 'टरपन ' जाति के पशु जगत् के प्राचीनतम पशुओं में से हैं। पाषाणयुगीन गुफाओं में उनके कितने ही चित्र आज भी उपलब्ध है-कद में नाटा - ठिगना, भूरे बाल, पैर पर धारियां और चूहे सा मुंह । यह पशु बड़ा ताकतवर तथा भयानक होता था । अपनी जंगली अवस्था में वो दूसरे छोर तक पशुओं का पता अक्सर इनके कुण्ड चरते चरते यूरोप के एक छोर से पहुँच जाते थे । अठारहवीं सदी तक तो इस जाति के KSATT
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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