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जैन दर्शन के मौलिक तस्वं
जाणादि पस्सदि सम्ब, इच्छदि सुखं विमेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिदमहिद वा, भुजदि जीवो फल तेसिं ।
-पञ्चा• १२६, १३० अर्थात्-इन्द्रियाँ जीव नहीं है, छह प्रकार के शरीर भी जीव नहीं है। उनमें जो न है, वह जीव है। उसके लक्षण है-ज्ञान, दर्शन, सुख की इच्छा, दुख का भय हित अहित
करण उनका फल भोग। ३३- सुह दुःख जाणणाबा, हिदपरियम्मं च अहिद मीसतं ।
जस्स प विनदि णिच्चं, तं समणा विति अजीव ॥ ३४-जिनमें सुख-दुख का शान, हित का अनुराग, अहित का भय, नहीं
होता, वे अजीव है। (क) कृत्रिम उदभिज अपने आप बढ़ जाता है। फिर भी सजीव पौधे को बढ़ती और इसकी बढ़ती में गहरा अन्तर है। सजीव पौधा अपने आप ही अपने कलेवर के भीतर होने वाली स्वामाविक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप बढ़ता है।
इसके विपरीत..... जड़ पदार्थ से तैयार किया हुआ उद्भिज बाहरी क्रिया का ही परिणाम है। -हि मा० खण्ड १, पृ० ४१
(ख) सजीव पदार्थ बढ़ते हैं और निर्जीव नहीं बढ़ते, लेकिन क्या चीनी का 'रषा' चीनी के संपृक्त घोल में रक्खे जाने पर नहीं बढ़ता ? यही बात पत्थरों और कुछ चट्टानों के बारे में भी कही जा सकती है, जो पृथ्वी के नीचे से बढ़कर छोटे या बड़े आकार ग्रहण कर लेते हैं। एक ओर हम आम की गुठली से एक पतली शाखा निकलते हुए देखते हैं और इसे एक छोटे पौधे
और अन्त में एक पूरे वृक्ष के रूप में बढ़ते हुए पाते हैं, और दूसरी ओर एक पिल्ले को धीरे २ बढ़ते हुए देखते हैं और एक दिन वह पूरे कुत्ते के बराबर हो जाता है। लेकिन इन दोनों प्रकार के बढ़ाव में अन्तर है। चीनी के रपे या परथर का बहाव उनकी सतह पर अधिकाधिक नए पर्त के जमाव होने की वजह से होता है। परन्तु इसके विपरीत छोटे पेड़ या पिल्ले अपने शरीर के भीतर खाद्य पदार्थों के ग्रहण करने से बढ़कर पूरे डोलडोल के हो जाते है।