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जैन दर्शन के मौलिक तस्व
हूँ, मैं दुःखी हूँ--यह अनुभव शरीर को नहीं होता। शरीर से भिन्न जो वस्तु है, उसे यह होता है। शंकराचार्य के शब्दों में-"सर्वो यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति, न नाहमस्मीति"-सबको यह विश्वास होता है कि 'मैं हूँ। यह विश्वास किसीको नहीं होता कि 'मैं नहीं हूँ।
(२) प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व उसके विशेष गुण के द्वारा प्रमाणित होता है। जिस पदार्थ में एक ऐसा त्रिकालबत्ती गुण मिले, जो किसी भी दूसरे पदार्थ में न मिले, वही स्वतन्त्र पदार्थ हो सकता है। आत्मा में 'चैतन्य' नामक एक विशेष गुण है। वह दूसरे किसी भी पदार्थ में नहीं मिलता। इसीलिए आत्मा दूसरे सभी पदार्थों से भिन्न स्वतन्त्र सत्ता है।
(३) प्रत्यक्ष गुण से अप्रत्यक्ष गुणी जाना जा सकता है। भूगृह में बैठा आदमी प्रकाश-रेखा को देखकर क्या सूर्योदय को नहीं जान लेता ?
(४) प्रत्येक इन्द्रिय को अपने अपने निश्चित विषय का ज्ञान होता है। एक इन्द्रिय का दूसरी इन्द्रिय के विषय से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इन्द्रियां ही शाता हों-उनका प्रवर्तक आत्मा शाता न हो तो सब इन्द्रियों के विषयों का जोड़ रूप ज्ञान नहीं हो सकता। फिर-"मैं स्पर्श, रस, गन्ध, रूप
और शब्द को जानता हूँ"-इस प्रकार जोडरूप ( संकलनात्मक ) शान किसे होगा! ककड़ी को चबाते समय स्पर्श, रस, गन्ध रूप और शब्द-इन पांचों को जान रहा हूँ-ऐसा ज्ञान होता है। इसीलिए इन्द्रियों के विषयों का संकलनात्मक ज्ञान करने वाले को उनसे भिन्न मानना होगा और वही मात्मा है।
(५) पदार्थों को जानने वाला श्रात्मा है, इन्द्रियां नहीं, वे सिर्फ साधन 'मात्र हैं। प्रात्मा के चले जाने पर इन्द्रियां कुछ भी नहीं जान पाती। इन्द्रियों के नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा जाने हुए विषयों का प्रात्मा को स्मरण रहता है। आँख से कोई चीज देखी, कान से कोई बात सुनी, संयोगवश आँख फूट गई, कान का पर्दा फट गया, फिर भी उस दृष्ट और श्रुत विषय का भली भांति ज्ञान होता है। इससे यह मानना होगा कि इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी उनके शान को स्थिर रखने वाला कोई तत्त्व है और वही आत्मा है।