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३५) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व रहा है। इस संस्कार की पृष्ठभूमि में जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण देन है। कायिक और मानसिक अहिंसा और उसकी वैयक्तिक और सामाजिक साधना का सुव्यवस्थित रूप जैन तीर्थकरों ने दिया, यह इतिहास द्वारा भी अभिमत है। निःशस्त्रीकरण (शस्त्र-परिक्षा)
जीवन की सारी चर्याओं का प्रधान-खोत आत्म-चर्या है। उसके दो पक्ष हैं-प्राचार और विचार। प्राचार का फल विचार है। विचार का सार प्राचार है। प्राचार से विचार का सम्वादन होता है, पोप मिलता है। विचार से आचार को प्रकाश मिलता है।
आचार का प्रधान अंग निःशस्त्रीकरण है। पाषाण-युग से अणुयुग तक जितने उत्पीड़क और मारक शस्त्रों का आविष्कार हुआ है, वे निष्क्रिय-शस्त्र (द्रव्य-शस्त्र ) हैं। उनमें स्वतः प्रेरित घातक शक्ति नहीं है।
भगवान् ने कहा-गौतम ! सक्रिय-शस्त्र (भाव-शस्त्र) असंयम है। विध्वंस का मूल वही है। निष्क्रिय-शस्त्रों में प्राण फूंकनेवाला भी वही है । उसे भली-भाँति समझ कर छोड़ने का यत्न करना ही निःशस्त्रीकरण है। शस्त्रीकरण के हेतु __भगवान् ने कहा-यह मनुष्य (१) चिरकाल तक जीने के लिए, (२४) प्रतिष्ठा, सम्मान और प्रशंसा के लिए, (५) जन्म-मृत्यु से मुक्त होने के लिए, (६) दुःख-मुक्ति के लिए-शस्त्रीकरण करता है। प्रतिष्ठा का व्यामोह
"आज तक नहीं किया गया, वह करूंगा" इस भूल-भुलैया में फंसे हुए लोग भटक जाते हैं। वे दूसरों को डराते हैं, सताते हैं, मारते हैं, लूट खसोट करते हैं।
वे नहीं जानते कि मौत के करोड़ों दरवाजे हैं। जीवन दौड़ रहा है। ने नहीं देखते कि मौत के लिए कोई दिन छुट्टी का नहीं है। जीवन नश्वर है।