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जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व से नामरूप, नामरूप के होने से छह प्रायसन, छह आयतनों के होने से स्पर्श, स्पर्श के होने से बेदना, वेदना के होने से तृष्णा, तृष्णा के होने से उपादान, उपादान के होने से भव, मव के होने से जन्म, जन्म के होने से बुढ़ापा, मरना, शोक, रोना-पीटना, दुःख, मानसिक चिन्ता तथा परेशानी होती है । इस प्रकार इस सारे के सारे दुःख-स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। भिक्षुओं! इसे प्रवीत्यसमुत्पाद कहते हैं।
अविद्या के ही सम्पूर्ण विराग से, निरोध से संस्कारों का निरोध होता है। संस्कारों के निरोध से विज्ञान-निरोध, विज्ञान के निरोध से नामरूप निरोध, नामरूप के निरोध से छह आयतनों का निरोध, छह आयतनों के निरोध से स्पर्श का निरोध, स्पर्श के निरोध से वेदना का निरोध, वेदना के निरोध . से तृष्णा का निरोध, तृष्णा के निरोध से उपादान का निरोध, उपादान के निरोध से भव-निरोध, भव के निरोध से जन्म का निरोध, जन्म के निरोध से बुढ़ापा, शोक, रोने-पीटने, दुःख मानसिक चिन्ता तथा परेशानी का निरोप होता है। इस प्रकार इस सारे के सारे दुःख-स्कन्ध का निरोध होता है। ___ भगवान महावीर ने जीव और अजीव का स्पष्ट व्याकरण किया। उनने कहा-जीव शरीर से भिन्न भी है और अभिन्न भी है। जीव चेतन है, शरीड़ जड़ है-इस दृष्टि से दोनों भिन्न भी हैं। संसारी जीव शरीर से बन्धा हुआ है, उसी के द्वारा अभिव्यक्त और प्रवृत्त होते हैं, इसलिए वे अभिन्न भी हैं।
आत्मा नहीं है, वह नित्य नहीं है, कर्ता नहीं है, भोक्ता नहीं है, मोक्ष नहीं है, मोक्ष का उपाय नहीं है ये छह मिथ्या-दृष्टि के स्थान है।
आत्मा है, वह नित्य भी है, कर्ता है, भोक्ता है, मोक्ष है, मोक्ष का उपाय है-ये छह सम्यक-दृष्टि के स्थान है'।
जीव और अजीव-ये दो मूल तत्त्व है। यह विश्व का निरूपण है।
पुण्य, पाप और बन्ध-यह दुःख (संसार) है"! पालव दुःख (संसार ) का हेतु है। मोक्ष दुःख (संसार) का निरोध है। संवर और निर्जरा दुख निरोप (मोच) के उपाय है।