________________
जैन दर्शन के मौलिक
[ ३५१
विज्ञान का निरोध है, उपशमन है, अस्त होना है, यही दुःख का निरोध हैं, रोगों का उपशमन है, जरा-मरण का अस्त होना है ।
यही शान्ति है, यही श्रेष्ठता है, यह जो सभी संस्कारों का शमन, सभी चित्त-मलों का त्याग, तृष्णा का क्षय, विराग- स्त्ररूप, निरोध स्वरूप
निर्वाण है ।
दुःख निरोध का मार्ग
भगवान् महावीर ने ऋणु मार्ग को देखा। वह ऋजु (सीधा ) है, इसलिए महाघोर है, दुश्वर है" ।
वह अनुत्तर है, विशुद्ध है, सब दुःखों का अम्त करनेवाला है" उसके चार अङ्ग है।
सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक्-चरित्र, सम्यक्-तप । इसकी अल्प-आराधना करने वाला अल्प-दुःखों से 'मुक्त होता है। इसकी मध्यम श्राराधना करने वाला सब दुःखों से मुक्त होता है। इसकी पूर्ण श्राराधना करने वाला सब दुःखों से मुक्त होता है ।
यह जो कामोपभोग का हीन, ग्राम्य, अशिष्ट, अनायं श्रनर्थकर जीवन है और यह जो अपने शरीर को व्यर्थ क्लेश देने का का दुःखमय, अनार्य, अर्थकर जीवन है, इन दोनों सिरे की बातों से बचकर तथागत ने मध्यममार्ग का ज्ञान प्राप्त किया जो कि आँख खोल देनेवाला है, ज्ञान करा देने बाला है, शमन के लिए, अभिशा के लिए, बोध के लिए, निर्वाण के लिए होता है
-
यही आर्य अष्टांगिक मार्ग दुःख-निरोध की ओर ले जाने वाला है; जो कि यूँ है— १ सम्यक् दृष्टि
२ सम्यक् संकल्प
३ सम्यक् बाणी
४ सम्यक् कर्मान्त
५. सम्यक आजीविका
प्रशा
शील