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________________ ३४६ ] जैन दर्शन के मौलिक तस्व इन चार श्रार्य-सत्यों का निरूपण किया । दुःख भगवान् महावीर ने कहा- पुण्य पाप का बन्ध ही संसार है। संसार दुःखमय है। जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है, मरण दुःख है" । पाप-कर्म किया हुआ है तथा किया जा रहा है, वह सब दुःख है महात्मा बुद्ध ने कहा -- पैदा होना दुःख है, बूढ़ा होना दुःख है, व्याधि । दुःख है, मरना दुःख है । विज्ञान भगवान् महावीर ने कहा---- ( १ ) जितने स्थूल अवयवी हैं, वे सब पाँच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और श्राठ स्पर्श वाले है-मूर्त या रूपी हैं । (२) चक्षु रूप का ग्राहक है और रूप उसका ग्राह्य है । कान शब्द का ग्राहक है और शब्द उसका माह्य है । नाक गन्ध का ग्राहक है और गन्ध उसका ग्राह्य है । जीभ रस की ग्राहक है और रस उसका ग्राह्य है । काय (त्व) स्पर्श का ग्राहक है और स्पर्श उसका ग्राह्य है। मन-भाव (अभिप्राय) का ग्राहक है और भाव उसका ग्राह्य है । चक्षु और रूप के उचित सामीप्य से चन्तु विज्ञान होता है । कान और शब्द के स्पर्श से श्रोत्र-विज्ञान होता है । नाक और गन्ध के सम्बन्ध से प्राण-विज्ञान होता है । जीभ और रस के सम्बन्ध से रसना-विज्ञान होता है । काय और स्पर्श के सम्बन्ध से स्पर्शन-विज्ञान होता है । चिन्तन के द्वारा मनोविज्ञान होता है । इन्द्रिय-विज्ञान रूपी का ही होता है। मनोविज्ञान रूपी और अरूपी दोनों का होता है" । वेदना (३) अनुकूल वेदना के छह प्रकार है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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