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श्रमण-परम्परा
विश्वभर के दर्शन सम और असम रेखाओं से भरे पड़े हैं। चिन्सन और अनुभूति की धारा सरल और वक-दोनों प्रकार बहती रही है। साम्य और असाम्य का अन्वेषण मात्रा मेद के आधार पर होता है। केवल साम्य या असाम्य ढूँढ़ने को वृत्ति सफल नहीं होती।
श्रमण-परम्परा की सारी शाखाएं दो विशाल शाखाओं में सिमट गई। जैन और बौद्ध-दर्शन के आश्चर्यकारी साम्य को देख-"एक ही सरिता की दो धाराएँ बही हों"-ऐसा प्रतीत होने लगता है।
भगवान् पार्श्व की परम्परा अनुस्यूत हुई हो-यह मानना कल्पना-गौरव नहीं होगा।
शब्दों गाथाओं और भावनाओं की समता इन्हें किसी एक उत्स के दो प्रवाह मानने को विवश किए देती है।
भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध-दोनों श्रमण, तीर्थ व धर्म-चक्र के प्रवर्तक, लोक-भाषा के प्रयोक्ता और दुख-मुक्ति की साधना के संगम-स्थल थे।
भगवान् महावीर कठोर तपश्चर्या और ध्यान के द्वारा केवली बने। महात्मा बुद्ध छह वर्ष की कठोर-चर्या से सन्तुष्ट नहीं हुए, तब ध्यान में लगे। उससे सम्बोधि-लाभ हुआ।
कैवल्य-लाम के बाद भगवान् महावीर ने जो कहा, वह द्वादशांगगणिपिटक में गुंथा हुआ है।
बोधिःलाम के बाद महात्मा बुद्ध ने जो कहा, वह त्रिपिटक में गुंथा हुआ है। तत्त्व-तथ्य या आर्य सत्य
भगवान् महावीर ने जीव, अजीप, पुण्य, पाप, पासव, संवर, बन्ध, निर्जरा, मोक्ष
इन नब तत्त्वों का निरूपण किया। महात्मा बुद्ध ने-दुख, दुःख-समुद्रक, निरोध, मार्ग--.