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________________ ३३४ ] जैन दर्शन के मौलिक तत्व "सर्व एव हि जैनानां, प्रमाण लौकिको विधिः । सम्यकत्व हानिर्न, यत्र यत्र न व्रतदूषणम् ।" 1 श्रमण परम्परा ने धर्म को लोकिक पक्ष से अलग रखना ही श्रेय समझा धर्म लोकोत्तर वस्तु है । वह शाश्वत सत्य है । वह द्विरूप नहीं हो सकता । ities विधियाँ भौगोलिक और सामयिक विविधताओं के कारण अनेक रूप होती हैं और उनके रूप बदलते ही रहते हैं। श्री रवीन्द्रनाथ ने 'धर्म और समाज' में लिखा है कि हिन्दू धर्म ने समाज और धर्म को एक-मेक कर दिया, इससे रूढ़िवाद को बहुत प्रश्रय मिला है धर्म शब्द के बहु-बर्थक प्रयोग से भी बहुत व्यामोह फैला है। धर्म-शब्द के प्रयोग पर ही लोग उलझ बैठे 1 शाश्वत सत्य और तत्कालीन अपेक्षाओं का विवेक न कर सके। इसीलिए समय - समय पर होने वाले मनीषियों को उनका भेद समझाने का प्रयत्न करना पड़ा | लोकमान्य तिलक के शब्दों में- " महाभारत में धर्म शब्द अनेक स्थानों पर आया है और जिस स्थान में कहा गया है कि 'किसी को कोई काम करना धर्म संगत है' उम स्थान में धर्म- शब्द से कत्र्तव्य - शास्त्र अथवा तत्कालीन सामाज-व्यवस्था शास्त्र ही का अर्थ पाया स्थान में पारलोकिक कल्याण के मार्ग बतलाने का प्रसंग आया है, उस स्थान पर अर्थात् शान्तिपूर्वक उत्तरार्ध में 'मोक्ष-धर्म' इस विशिष्ट शब्द की योजना की गई है ७४ । जाता है तथा जिस श्रमण परम्परा इस विषय में अधिक सतर्क रही है। उसने लोकोत्तर- धर्म के साथ लौकिक विधियों को जोड़ा नहीं । इसीलिए वह बराबर लोकोत्तर पक्ष 1 की सुरक्षा करने में सफल रही है और इसी आधार पर वह व्यापक बन सकी है। यदि श्रमण परम्परा में भी वैदिकों की भाँति जाति और संस्कारों का आग्रह होता तो करोड़ों चीनी और जापानी कभी भी भ्रमण परम्परा का अनुगमन नहीं करते । आज जो करोड़ों चीनी और जापानी श्रमण परम्परा के अनुयायी हैं, वे इसीलिए है कि वे अपने संस्कारों और सामाजिक विचारों में स्वतंत्र रहते हुए भी श्रमण परम्परा के लोकोत्तर पक्ष का अनुसरण कर सकते हैं।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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