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________________ जैन दर्शन के मौलिक तस्व . (२) भाषा-निरवद्य वचन बोलना। (३) एषणा-निदोष और विधिपूर्वक मिक्षा लेना। (४) आदान-निक्षेप-सावधानी पूर्वक वस्तु को लेना व रखना। (५) परिठापना-मल-मूत्र का विसर्जन विधिपूर्वक करना। तात्पर्य की भाषा में इनका उद्देश्य है-हिंसा के स्पर्श से बचना। गुप्ति असत्-प्रवृत्ति तथा यथासमय सत् प्रवृत्ति का भी संवरण करना गुप्ति है। वे तीन हैं : (१) मनो-गुसि-मन की स्थिरता-मानसिक प्रवृत्ति का संयमन । (२) वचन-गुप्ति-- मौन । (३) काय-गुप्ति कायोत्सर्ग, शरीर का स्थिरीकरण । मानसिक एकाग्रता के लिए मौन और कायोत्सर्ग अत्यन्त आवश्यक है। इसीलिए आत्म-लीन होने से पहले यह संकल्प किया जाता है-"मैं कायोत्सर्ग, मौन और ध्यान के द्वारा श्रात्म-व्युत्सर्ग करता हूँ-आत्मलीन होता हूँ।" आहार आहार जीवन का साध्य तो नहीं है किन्तु उसकी उपेक्षा की जा सके, बैसा साधन भी नहीं है। यह मान्यता की जरूरत नहीं किन्तु जरूरत की मांग है। शरीर-शास्त्र की दृष्टि से इस पर सोचा गया है पर इसके दूसरे पहलू बहुत कम छुए गए हैं। यह केवल शरीर पर ही प्रभाव नहीं डालता । उसका प्रभाव मन पर भी होता है। मन अपवित्र रहे तो शरीर की स्थूलता कुछ नहीं करती, केवल पाशविक शक्ति का प्रयोग कर सकती है। उससे सब घबड़ाते है। ___ मन शान्त और पवित्र रहे, उत्तेजनाएँ कम हो-यह अनिवार्य अपेक्षा है। इसके लिए आहार का विवेक होना बहुत जरूरी है। अपने स्वार्थ के लिए विलखते मूक प्राणियों की निर्मम हत्या करना बहुत ही कर-कर्म है मांसाहार इसका बहुत बड़ा-निमित्त है।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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