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जैन दर्शन के मौलिक तत्वं '.. tu चले। यह सबके लिए आवश्यक मार्ग है। अविरति मनुष्य को मूद बनाती है, यह केवल अवरति नहीं है। विरति केवल मनुष्य मात्र के लिए सरल नहीं होती, यह केवल विरति नहीं है। यह अविरति और विरति का योग है। इसमें न तो वस्तु-स्थिति का अपलाप है और न मनुष्य की पत्तियों का पूर्ण अनियंत्रण। इसमें अपनी विवशता की स्वीकृति और स्ववराता की ओर गति दोनों है।
निश्चय-दृष्टि यह है-हिंसा से प्रात्मा का पतन होता है, इसलिए यह प्रकरणीय है।
व्यवहार-दृष्टि यह है-सभी प्राणियों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है। सुख अनुकूल है । दुःख प्रतिकूल है । बध सब को अप्रिय है । जीना सब को प्रिय है। सब जीव लम्बे जीवन की कामना करते हैं। सभी को जीवन प्रिय लगता है। .
यह सब समझ कर किसी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। किसी जीव को त्रास नहीं पहुँचाना चाहिए। किसी के प्रति बैर और विरोध भाव नहीं रखना चाहिए। सब जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखना चाहिए।
हे पुरुष । जिसे तू मारने की इच्छा करता है,.. विचार कर वह तेरे जैसा ही सुख-दुःख का अनुभव करने वाला प्राणी है; जिसपर हुकूमत करने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे दुःख देने का विचार करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे अपने वश करने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है; जिसके प्राण लेने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है।
मृषावाद-विरति-सरा महाव्रत है। इसका अर्थ है असत्य-माषण से विरत होना।
अदत्तादान विरति तीसरा महानत है इसका अर्थ है बिना दी हुई वस्तु लेने से विरत होना । मैथुन-विरति चौथा महावत है-इसका अर्थ है भोगविरति । पाँचवाँ महाप्रत अपरिग्रह है। इसका अर्थ है परिग्रह का त्याग । मुनि मृषावाद आदि का सर्वथा प्रत्याख्यान करता है, इसलिए स्वीकृति निम्न शब्दों में करता है।