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जैनबन के मौलिक तत्व अहिंसा का यह व्यापक रूप है। इसकी परिभाषा है जो संबर और सत्प्रवृत्ति है वह अहिंसा है।
अहिंसा का दूसरा रूप है:-प्राणातिपात-विरति ।
भगवान ने कहा जीवमात्र को मत मारो, मत सताओ, आधि-व्याधि मत पैदा करो, कष्ट मत दो, अधीन मत बनाओ, दास मत बनाओ यही नुव-धर्म है, यही शाश्वत सत्य है। इसकी परिभाषा है-मनसा, वाचा, कर्मणा और कृत, कारित अनुमति से आक्रोश, बन्ध और बध का त्याग । दुसरे महामतों की रचना का मूल यही परिभाषा है। इसमें मृषावाद, चौर्य, मैथुन और परिग्रह का समावेश नहीं होता। अहिंसा सत्य और ब्रह्मचर्य जितने व्यापक शब्द है, उतने व्यापक प्राणातिपात-विरति, मृषावाद-विरति और मैथुन. विरति नहीं है।
प्राणातिपात-विरति भी अहिंसा है। स्वरूप की दृष्टि से अहिंसा एक है। हिंसा भी एक है। कारण की दृष्टि से हिंसा के दो प्रकार बनते है-(१) अर्थ हिंसा-आवश्यकतावश की जाने वाली हिंसा और (२) अनर्थ हिंसा-अन् आवश्यक हिंसा । मुनि सर्व हिंसा का सर्वथा प्रत्याश्यान करता है। वह अहिंसा महाव्रत को इन शब्दों में स्वीकार करता है-"भत्ते ! मैं उपस्थित हुआ हूँ पहले महावत प्राणातिपात से विरत होने के लिए । भंते ! मैं सब प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। सूक्ष्म और बादर, प्रस और स्थावर जीवों का अतिपात मनसा, वाचा, कर्मणा, मैं स्वयं न करू गा-दूसरों से न कराऊँगा और न करने वाले का अनुमोदन करूंगा। मैं यावजीवन के लिए इस प्राणातिपात-विरति महानत को स्वीकार करता
____ गृहस्थ अर्य-हिंसा छोड़ने में क्षम नहीं होता, वह अनर्थ हिंसा का त्याग
और अर्थ-हिंसा का परिमाण करता है। इसलिए उसका अहिंसा-रत स्थूलप्राणातिपात-विरति कहलाता है। जैन आचार्यों ने गृहस्थ के उत्तरदायित्वों और विवशताओं को जानते हुए कहा-"प्रारम्भी-कृषि, व्यापार सम्बन्धी और विरोधी प्रत्याक्रमण कालीन हिंसा से न बच सको वो संकल्पी-नाक्रमणात्मक और अमायोजनिक हिंसा से अवश्य बचो।" इस मध्यम-मार्ग पर अनेक लोग ।