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________________ ३१२] 'जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व इस शरीर को खपा* | साध्य ( श्रात्म-हित ) खपने से सधता है' । इस शरीर को तपा १० । साध्य तपने से ही सधता है" । अभय २ लोक-विजय का मार्ग अभय है । कोई भी व्यक्ति सर्वदा शस्त्र- प्रयोग नहीं करता, किन्तु शस्त्रीकरण से दूर नहीं होता, उससे सब डरते हैं म की प्रयोग भूमि केवल जापान है। उसकी भय - व्याप्ति सभी राष्ट्रों " । में है । जो स्वयं अभय होता है, वह दूसरों को अभय दे सकता है दूसरों को अभीत नहीं कर सकता । आत्मानुशासन 3 संसार में जो भी दुःख है, वह शस्त्र से जन्मा हुआ है १३ । संसार में जो भी दुःख है, वह संग और भोग से जन्मा हुआ है १४ । नश्वर सुख के लिए प्रयुक्त क्रूर शस्त्र को जो जानता है, वही शस्त्र का मूल्य जानता है, वही नश्वर सुख के लिए प्रयुक्त क्रूर शस्त्र को जान सकता है" । 1 स्वयं भीत भगवान् ने कहा- गौतम ! तू श्रात्मानुशासन में श्रा । अपने आपको जीत । यही दुःख-मुक्ति का मार्ग है" । कामों, इच्छाओं और वासनाओं को जीत । यही दुःख-मुक्ति का मार्ग है ' 919 1 1 लोक का सिद्धान्त देख - कोई जीव दुःख नहीं चाहता । तू भेंद में श्रभेद देख, सब जीवों में समता देख । शस्त्र प्रयोग मत कर। दुःख-मुक्ति का मार्ग यही है । कषाय - विजय, काम विजय या इन्द्रिय-विजय, मनोविजय, शस्त्र- 1 - विजय और साम्य दर्शन - दुःख मुक्ति के उपाय हैं । जो साम्यदर्शी होता है, वह शस्त्र का प्रयोग नहीं करता । शस्त्र विजेता का मन स्थिर हो जाता है । स्थिरचित्त व्यक्ति को इन्द्रियां नहीं सतातीं । इन्द्रिय-विजेता के कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ ) स्वयं स्फूर्त नहीं होते । संवर और निर्जरा यह जीव मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ( मन, वाणी
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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