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________________ जैन दर्शन के मौलिक तस्व [ ३११ मुक्त है, पूजा और प्रहार में सम है, आहार और अनशन में सम है, अप्रशस्त वृत्तियों का संगारक है, अध्यात्म ध्यान और योग में लीन है, प्रशस्त श्रात्मानुशासन में रत है, श्रद्धा, शान, चारित्र और तप में निष्ठावान् है वही भावि तात्मा श्रमण है । भगवान् ने कहा— कोई श्रमण कभी कलह में फँस जाए तो वह तत्काल सम्हल कर उसे शान्त कर दे। वह क्षमा याचना करले । सम्भव है, दूसरा श्रमण वैसा करे या न करे, उसे आदर दे या न दे, उठे या न, उठे, वन्दना करे, या न करे, साथ में खाये या न खाये, साथ में रहे या न रहे कलह को उपशान्त करे या न करे, किन्तु जो कलह का उपशमन करता है। वह धर्म की आराधना करता है, जो उसे शांत नहीं करता उसके धर्म की आराधना नहीं होती। इसलिए श्रात्म- गवेषक श्रमण को उसका उपशमन करना चाहिए । गौतम ने पूछा - भगवन् ! उसे अकेले को ही ऐसा क्यों करना चाहिए ! भगवान् ने कहा- गौतम ! श्रामण्य उपशम-प्रधान है। जो उपशम करेगा, वही श्रमण, साधक या महान् है । उपशमन विजय का मार्ग है। जो उपशम-प्रधान होता है, वही मध्यस्थमाव और तटस्थ - नीति को बरत सकता है । साम्य-योग जाति और रंग का गर्व कौन कर सकता है ? यह जीव अनेक बार ऊंची और अनेक बार नीची जाति में जन्म ले चुका है । यह जीव अनेक बार गोरा और अनेक वार काला बन चुका है। जाति और रंग, ये बाहरी आवरण हैं। ये जीव को हीन और उच्च नहीं बनाते 1 बाहरी आवरणों को देख जो हृष्ट व रुष्ट होते हैं, वे मूढ़ हैं। प्रत्येक व्यक्ति में स्वाभिमान की वृत्ति होती है। इसलिए किसी के प्रति भी तिरस्कार, घृणा और निम्नता का व्यवहार करना हिंसा है, व्यामोह है । तितिक्षा भगवान् ने कहा- गौतम ! अहिंसा का आधार तितिक्षा है" । जो कष्टों से घबड़ाता है, वह अहिंसक नहीं हो सकता ।
SR No.010093
Book TitleJain Darshan ke Maulik Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Chhaganlal Shastri
PublisherMotilal Bengani Charitable Trust Calcutta
Publication Year1990
Total Pages543
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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